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'तहत्ति' कहकर गुरुभगवंत के वचन को स्वीकार किया और जंगल में एकान्त और निर्जन स्थल पर सब्जी परठने के लिए पहुँचे । स्थल को निर्जीव देखकर परीक्षण के लिए एक बूंद की पारिष्ठापनिका की । देखते-देखते हजारों चींटियाँ इधर-उधर खुश्बू के कारण दौड़ आई ....... और उस बूंद का स्वाद लेते ही प्राण गँवा दिये..... इस भयंकर हिंसा को देखकर मुनिश्री का अन्त:करण द्रवित हो उठा और विचार करने लगे कि 'यदि एक ही बूँद से हजारों चींटियाँ मर जाती हैं तो पूरे पात्र की पारिष्ठापनिका करूँगा.... तो....तो..... ओह ! बेहतर है मैं अपने ही पेट में इसे परठ दूँ.... ।'
मुनि भगवंत संथारा कर वहीं बैठ गये.... चार शरण लेकर जहरीली सब्जी का पूरा पात्र वापर लिया। जहर के फैलते ही पूरे शरीर में भयंकर दाह उत्पन्न हुआ.... नसें खींचने लगी, अग्नि ज्वालाएँ मानो अंग-प्रत्यंग से उठने लगी... अपार वेदना ने अपना अड्डा जमा लिया। मुनिश्री समभाव में रहते हुए हँसते-हँसते सहते रहे। आयुष्य पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में तेत्रीश सागरोपम के आयुष्यवाले देव बने ।
नागश्री मर कर छट्ठी नरक में गई। वहाँ उसे बाईस सागरोपम का अपवर्त्तनीय आयुष्य मिला। छट्टी नरक में वह भयंकर वेदनाओं के कारण पल-पल मौत की इच्छा करती है, मगर मौत उसे नहीं मिलती।
आत्महत्या
कितने ही लोग क्रोध अथवा अहंकार से आत्महत्या (Suicide) करते हैं। आत्महत्या करने वाली आत्मा दुर्गति में जाती
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 61
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