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नागश्री ब्राह्मणी एक ब्राह्मण के तीन पुत्र थे। उसमें से एक की शादी नागश्री नामक ब्राह्मण कन्या के साथ हुई। तीनों पुत्रों की शादी हो गई। अत: पुत्रवधुओं में झगड़ा-टंटा न हो इसलिये एक व्यवस्था बनाई गई। तदनुसार बारी-बारी से एक दिन का सारा काम एक बहू को करना, ऐसा निश्चय किया गया। नागश्री की बारी आई. उसने तुमड़े की सब्जी बनाई। परन्तु सब्जी बनाने से पूर्व वह उसे चखना भूल गई। सब्जी बनाकर फिर चखा... थू...) करना पड़ा, क्योंकि सब्जी एकदम कड़वी थी। नागश्री अत्यन्त चिंतित हुई। इज्जत का सवाल था। नाक कटने की बारी आ गई। मानो साँप ने छडूंदर खा लिया, 'निगले तो मरें...और उगले तो अंधा हो जाय....।'
सब्जी को बाहर फैंके तो इज्जत जाती है और घर में रखे तो दूसरी बहुओं के बीच नीचा देखना पड़ता है।
इस दुविधा में फँसी ही थी कि एकाएक 'धर्मलाभ' के साथ मासक्षमण के महातपस्वी धर्मरूचि अनगार ने घर में माधुकरीगोचरी के लिए प्रवेश किया। उस वक्त नागश्री को एक कुबुद्धि सूझी
और उसने सारी की सारी सब्जी मुनिश्री के पात्र में 'ना-ना' कहते उड़ेल दी। ___मुनिश्री ने गुरुभगवंत को गोचरी बताई। आहार देखते ही चार ज्ञान के धारक गुरु भगवंत ने कह दिया 'यह जहरीले तुंबे की तरकारी है....अत: इसे जयणा पूर्वक परठ कर वोसिरा दो... । हे श्रमण ! तुम दया के ज्ञाता हो....अत: जीवहिंसा न हो, इसका ख्याल रखना....यह सब्जी आहार करने योग्य नहीं है, अत: दूसरा आहार लाकर संयम का निर्वाह करना....वह ज्यादा उचित होगा।'
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /60
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