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भाव को रोकने का स्वभाव, कितनों में नीच-उच्च कुलों में उत्पन्न करने का स्वभाव...और कितनों में बल आदि में विघ्न करने का स्वभाव उत्पन्न होता है। उसे प्रकृतिबंध कहते हैं।
दृष्टांत- जैसे सोंठ में पित्त करने का स्वभाव है तो गुड़ में कफ करने का स्वभाव है, परन्तु गुड़ का पाया बनाकर उसमें सोंठ मिलाकर यदि गोलियाँ बना दी जाय, तो उसमें वायु नाश करने का स्वभाव उत्पन्न हो जाता है।
मोतीचूर के लड्डू में वायु करने का स्वभाव उत्पन्न होता है..दूध में जामन डालने से जड़ता उत्पन्न करने का स्वभाव उत्पन्न होता है....उसी तरह आत्मा के साथ जुड़ रहे कार्मणवर्गणा के जथ्थों में ज्ञानादि रोकने का स्वभाव उत्पन्न हो जाता है।
असत्कल्पना से हम इस तरह आपको समझा सकते हैं...मानो कि हमने कार्मणवर्गणा के आठ हजार स्कंध ग्रहण किये तो उसमें से एक हजार स्कंध में ज्ञानावरण स्वभाव उत्पन्न होता है....दूसरे हजार में दर्शनावरण स्वभाव उत्पन्न होगा...इसी तरह हर एक-एक हजार में अलग-अलग स्वभाव उत्पन्न हो जाता है। ... यद्यपि सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो स्कंधों में जो स्वभाव
उत्पन्न होते हैं, वे विशेषाधिक ही होते हैं....किसी जथ्थे में कम तो किसी में ज्यादा। फिर भी यहाँ पर तो स्थूलदृष्टि से असत्कल्पना • को माध्यम बना कर समझाया है। . वे जथ्थे अनुक्रम से (1) ज्ञानावरण (2) दर्शनावरण (3) वेदनीय (4) मोहनीय (5) आयुष्य (6) नाम (7) गोत्र और (8) अन्तरायकर्म - कहलाते हैं। इनके अवांतर भेद मतिज्ञानावरण आदि होते हैं।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /41
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