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आवश्यक तैयारी कर दी और सभी ने अपने-अपने रोल समझ लिये।
शाम के समय बहुरूपिये की कला देखने के लिए अपार जनमेदिनी आ गई। गाँव के लोगों के साथ दर्जी भी अपनी पत्नी के साथ आ पहुँचा। सभी की नजर मंच पर बन्द पड़े पर्दे पर थी, यकायक पर्दा खुला.... तो ऐसा देखा... अरे, देखना क्या था ? लोग हँस-हँस कर दोहरे हो गये....चूँकि गाँव के दर्जी और उसकी पत्नी की कार्बन कॉपी मंच पर थी..वैसा ही हुलिया......वो ही एक्टिंग....वैसा ही स्वर......हाथ में कैंची......आँखों पर चश्मा.......कान पर पेंसिल.....गले में मापने की टेप.....! 'सूत्रधार ने जाहिर किया- 'आज हम रामलीला के बदले दर्जीलीला करना चाहेगे....'
दर्जी लीला थोड़ी आगे चली.....मजा ऐसा आया कि लोग ठहाका लगाते पेट पकड़कर हँसते रहे और उधर दर्जी और उसकी पत्नी मन ही मन जलभून कर राख हो रहे थे....दर्जी की पत्नी को खूब गुस्सा आया....उसने अपने पति से कहा- चलो ! यहाँ से चलते हैं, अब ज्यादा सहन नहीं होता। लोग भी कैसे हैं? बिल्कुल बेशर्म !, हँसते जा रहे हैं और हमारी ओर जानबूझ कर देखते भी जा रहे हैं...! दर्जी को भी गुस्सा तो आ ही रहा था, वह जैसे ही उठा, मंच से बहुरूपिया बोला- 'अरे दर्जीभाई ! अभी तो खेल बहुत बाकी है, आप बीच में ही अधूरा छोड़ कर जा रहे हैं, यह अच्छा नहीं है....! बैठिये..बैठिये !' इससे दर्जी का गुस्सा और भी अत्यधिक बढ़ गया। उसका बोयलर फट गया....जैसे उस पर किसी ने एटमबम फैंका हो.... | दर्जी बोला- 'मैं तो अभी चला....कौन माई का लाल है जो मुझे रोक सकता है ? इतना भी
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /32
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