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जैनदर्शन कहता है कि जब हमारे मन, वचन और काया की शुभ या अशुभ क्रिया होती है, तब विश्व के कोने-कोने में प्रसरी हुई कार्मणवर्गणा को (पुद्गल परमाणुओं का एक जथ्था, जिसका विशेष वर्णन आगे के प्रकरणों में किया जायेगा ) अपनी आत्मा मिथ्यात्व आदि के कारण ग्रहण कर दूध और पानी की तरह अथवा लोहा और आग की तरह एकमेक कर कर्म बना देती है।.
कार्मणवर्गणा से कर्म बनता है..... कार्मणवर्गणा में सुख या दुःख देने की ताकत नहीं है .... परन्तु ज्योंहि आत्मा उसे ग्रहण कर कर्मरूप बनाती है....उसी वक्त उसमें सुख-दु:ख देने की...... ज्ञानादि रोकने की आदि नानाविध शक्तियाँ उत्पन्न होती है।
जैसे कि घास आदि गाय के पेट में परिणाम पाते हैं, तब दूध में मिठास आदि गुणधर्म उत्पन्न होते हैं.... अथवा पानी और आटे को मिलाने के बाद उससे बनी हुई इडली आदि में खटाई आदि नये स्वभाव उत्पन्न होते हैं ।
ये कर्म आत्मा के साथ जुड़े हुए रहते हैं और कालान्तर में जब वे उदय में आते हैं, तब सुख-दु:ख आदि फल देते हैं।
कर्मग्रहण प्रक्रिया व प्रसारण केन्द्र की उपमा
आत्मा कार्मणवर्गणा को ग्रहण करती है.... आइये, अब इस हकीकत को हम रेडियो और प्रसारण केन्द्र के माध्यम से समझें ।
जैसे प्रसारण केन्द्र से कोई व्यक्ति समाचार प्रसारित करता है, तब ध्वनितरंगे ट्रांसमीटर द्वारा विद्युततरंगों में परिवर्तित हो जाती है। तदन्तर विद्युत तरंगे विश्व के कोने-कोने में फैल जाती है। कारण कि विद्युत की गति एक सेकंड में 1,86,000 माइल है। जब कोई व्यक्ति अपने रेडियो यन्त्र को स्टार्टर से चालू कर ट्यूनर से स्टेशन लगाता है ....., तब विद्युत तरंगों को रेडियो यंत्र ग्रहण करता
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 18
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