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________________ ढंढणकुमार महर्षि ढंढणकुमार का जीव पूर्व भव में किसानों का निरीक्षक था। जब किसानों का भोजन आ जाता और भोजन का समय हो जाता, तब सभी किसानों को वह कहता कि 'एक-एक चक्कर मेरे खेत में लगा आओ।' बेचारे किसान मरता क्या न करता....सच है सत्ता के सामने शान काम नहीं आती है, सो अनिच्छा से भी जबरदस्ती लादे गये काम को भी कर आते। इस प्रकार अनीति करने से लाभान्तराय कर्म बाँधा और भोजन में अंतराय करने से भोगान्तराय कर्म बाँधा...अत: ढंढण ऋषि को छह महिने तक आहार नहीं मिला। फिर बाद में तो गोचरी भी मिली। श्री नेमिनाथ भगवान ने कहा- 'यह तुम्हारी अपनी लब्धि से नहीं मिली है...तुम्हारा अभिग्रह पूरा नहीं हुआ है, ढंढण ऋषि गोचरी परठने लगे....भावों की अपार विशुद्धि के बल पर उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। 4. उपभोगान्तराय कर्म के बंधहेतु ___एक बार उपयोग में लेने के बाद दूसरी बार जिसका उपयोग किया जा सके, उसे उपभोग कहते हैं। जैसे कि दागिने.... कपड़े....घर आदि। उपभोग में अन्तराय करे तो उपभोगान्तराय कर्म बँधता है और फिर वह कर्म जब उदय में आता है, तब मयणासुंदरी की बहिन सुरसुंदरी की तरह उपभोग की सामग्रियों का भोग नहीं कर सकते हैं। पिता ने पूछा- पुण्य से क्या मिलता है ? जैनधर्म समझी हुई मयणासुंदरी बोली- पिताजी ! पुण्य से पाँच चीजें मिलती है.... ___1. विनय 2. विवेक 3. सुप्रसन्नप्रशांत मन 4. शील सुशोभित देह और 5. मोक्ष मार्ग का योग। रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /160 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004216
Book TitleRe Karm Teri Gati Nyari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages170
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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