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1. दानान्तरायकर्म का बंधहेतु
दान की निंदा करनी, दान देते वक्त या देने के बाद पश्चाताप करना | मम्मण ने पूर्व भव में यह कर्म बाँधा था । अतः अथाह सम्पत्ति होते हुए भी वह दान-पुण्य न कर सका और मरकर सातवीं नरक में गया।
2. लाभान्तराय कर्म बंधहेतु
दूसरों को लाभ होता है, उस समय अंतराय करना..... अनीति आदि करनी....इसमें लाभान्तराय कर्म बँधता है। अगले भव में व्यापारादि में लाभ नहीं होता है।
3. भोगान्तराय कर्मबंध कारण
भोग = जिसका एक ही बार भोग = उपयोग किया जा सके। दूसरी बार काम ही न लगे, भोजन आदि.......। रसगुल्ले - ए वन हैं हैं.....फर्स्ट क्लास हैं..... हलवाई की घंटों की मेहनत है ..... मगर मुँह में डाला नहीं कि शरीर की सारी फेक्ट्री चालू हो जाती है ....! दुनिया के कारखानों में देखा जाता है कि थर्ड क्लास माल डालो तो फर्स्ट क्लास बनकर निकलता है। मगर यह अपना शरीर एक ऐसी अजीबोगरीब फेक्ट्री है कि ए वन माल को थर्ड क्लास बना देती है। उन्हीं रसगुल्लों का दूसरे दिन जो प्रोडक्ट तैयार होकर बाहर निकलता है (पाखाने में) उसे आदमी देखने की भी इच्छा नहीं करता है......
अत: भोजन को भोग माना गया है.... दूसरी बार काम ही नहीं लगता....... पेन..... पेन्सिल.....पेंट शर्ट... का उपभोग होता. है। चूँकि उनका उसी रूप में दूसरे दिन भी उपयोग हो सकता है।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 159
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