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________________ आदि को तिनके की भाँति छोड़ दिया और निर्मोही बनकर तुरन्त चारित्र ले लिया...माता-पिता-स्त्री परिवार आदि महिनों तक उनके पीछे-पीछे आँसू बहाते हुए घूमते रहे..... रो-रोकर पुकारते रहे, अरे ! पतिदेव ! अरे पुत्र ! हमारी ओर अपनी नजर तो करों। परन्तु वीर सनतकुमार आत्मसाधना में लीन हो चुके थे....ममता से परे हटकर समता में डूब चुके थे.... । तप साधना के बल पर उन्हें कई लब्धियाँ भी उत्पन्न हो गई थी....वे चाहते तो कोढ़ से झरते अपने शरीर को चन्द मिनटों में निरोगी बना सकते थे, मगर...उन्हें काया से क्या मतलब ? वैद्य का रूप लेकर देव आया...अरज की....आपकी आज्ञा हो तो मैं आपके शरीर का ईलाज करूँ ? निरीह मुनि ने यूँक को अपनी अंगुली पर लगाया.....अंगुली की रौनक ही बदल गई.....और उन्होंने कहा ''देखा न, ईलाज बाहर से लाने की जरूरत ही नहीं है....मगर जितना मैं ज्यादा सहता हूँ.....उतना कर्मरोग नष्ट होता है।'' सात सौ वर्ष के बाद रोग अपने आप शांत हो गये। लाख वर्ष तक दीक्षा का पालन किया और साधना के बल पर तीसरे देवलोक में गये। ___ कर्म की विचित्रता- उपर्युक्त दृष्टांतों से ‘सभी रोगों का मूल कर्मरोग है' यह बात हमारे गले सीधी-सीधी उतर जाती है। विषमताएँक्यों? आज आदमी सुख-शांति के साधनों को प्राप्त करने के लिये भरपूर प्रयास करता है.....फिर भी वह अनेक विषमताएँ एवं विचित्रताओं का भोग बन जाता है.... । रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004216
Book TitleRe Karm Teri Gati Nyari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages170
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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