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किसी तालाब में हंसली बनी । शीतऋतु में वसुभूति मुनिश्री तालाब के किनारे कायोत्सर्ग में खड़े थे..... हंसली आ... आ कर उन पर पानी उछालने लगी.... अव्यक्त मधुर शब्दों से विरहवेदना के स्वर निकालने लगी और मुनिश्री को आलिंगन में बाँधने की वैषयिक चेष्टायें करने लगी। मुनिश्री वहाँ से तुरन्त निकल गये। हंसली आर्त्तध्यान में रो-रो कर मर गई और व्यंतरी हुई। उसने अपने ज्ञान से वसुभूति मुनि और अपना पूरा संबंध देखा। 'वसुभूति ने मुझे ठुकरा - ठुकरा कर दुःखी किया.... अब मैं इसे मजा चखाऊँगी' उसका तन-बदन क्रोध से काँपने लगा.....।
मुनिश्री ध्यान में खड़े थे.....व्यंतरी ने भयंकर उपसर्ग किये.... अनुकूल भी और प्रतिकूल भी...!! मुनि मेरु की तरह अडिग रहे....उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । केवली भगवंत ने सशल्यता की भयंकरता लोगों को समझाई और कमलश्री का दृष्टांत दिया। मुनिश्री अनुक्रम से मोक्ष पधारे।
एक ही घर में मात्र कुदृष्टि रखने से कमलश्री को कितना भयंकर कष्ट भुगतना पड़ा.... और यदि गुरुभगवंत के पास शुद्ध मन से आलोचना प्रायश्चित कर लिया होता तो ? यह आफत खड़ी ही न होती। हम भी अपने आपको ऐसी कामवासनाओं से बचाये..... और कदाचित मोहनीय कर्म के उदय से दोष लग भी गये हो तो गुरु भगवंत के पास प्रायश्चित कर लें..... बेड़ा पार हो जायेगा।
मनुष्य आयुष्य के बंध हेतु 1. दान रूचि
स्वयं के पास धन हो या न हो... परन्तु दान देने की रूचि सतत जागृत रहे....वह मनुष्य आयु बाँधता है। जैसे- संगम को
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 124
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