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बात कह कर देख..' इस पर देवसेन ने ऊँटनी के कान में जाकर कान में सारी बातें कह सुनाई ।
सुनते ही उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। पूरा पूर्व भव फिल्म की दृश्यावलियों की तरह उसकी चेतना में उभरने लगा.....उसे अपार पश्चात्ताप हुआ.... सचित्त का त्याग कर आलोचना लेकर... अपनी आयु समाप्त कर वह ऊँटनी देवगति में उत्पन्न हुई। . देवद्रव्य से कमाई
साकेतपुर में एक सेठ रहते थे। उनका नाम सागर सेठ था। गाँव के लोगों ने मंदिर बाँधने वाले कारीगरों को वेतन देने का काम सागरसेठ को सौंपा। सागरसेठ वेतन में रुपये देने की जगह अपनी दुकान से दैनिक काम में आये, वैसी आवश्यक खान-पान की चीजें घी-गुड़-तेल- आटा आदि बाजार भाव से सस्ता देते थे।
इस व्यापार में उन्हें रुपये 12.30 की आय हुई। इससे उन्हें दर्शनमोहनीय कर्म बँध गया । तिर्यंच आयुष्य बँध गया । अत: सेठ वहाँ से मरकर अंडगोलिक (जल मनुष्य) मत्स्य हुए। बारह महिने तक उसे चक्की में पीसा गया। अंडगोली निकलने के बाद अंत में मर गया।
फिर नरक - मछली- चौथी नरक - एक - एक भव कर सातों नरकों में गया। उसके बाद सुअर, बोकड़ा, बकरी, हिरन, खरहा, साबर, सियार, बिल्ली, चूहा, छिपकली आदि के एक-एक हजार भव किए। फिर कुछ कर्म क्षीण-सा हुआ, अतः मनुष्य जन्म मिला । जन्म होते ही उसके फूटे भाग्य ने अपना प्रभाव बता दिया। मातापिता का वियोग हो गया। लोगों ने अभागिये का यथार्थ नाम रख दिया। 'निष्पुण्यक (पुण्यहीन ) । '
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 112
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