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________________ है और मेरे पास भी..' इन वचनों से दर्शनमोहनीय कर्म बंध गया और एक कोडा-कोडी सागरोपम का संसार बढ़ गया..... 2.मार्गका नाश करना अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी मोक्ष मार्ग का अपलाप करना...हँसी उड़ानी...और कहना....'मोऽऽऽऽक्ष ! किसने देखा है, चारित्र से मोक्ष मिलता है ?' कंदमूल में अनंतजीव है....कैसे पता चलता है ? इत्यादि नाना प्रकार से अपनी और औरों की श्रद्धा नष्ट-भ्रष्ट करनी। 3.देवद्रव्यकाहरण देवद्रव्य का उपयोग-उपभोग करना....। उससे कमाई करनी...चंदे में लिखाया हुआ....मंदिर का पैसा.....पूजा-प्रतिष्ठा आदि की बोलियाँ जल्दी नहीं भरना.....इससे दर्शनमोहनीय का बँध होता है। ___ कई अज्ञान लोग मंदिर के पैसों से स्कूल बनवाते हैं....सराय....धर्मशालाएँ....बनवाते हैं..... बनवाने वाला भी पाप से भारी होता है और उसमें उतरने वाला भी ! उपाश्रय-स्थानकों में जहाँ-जहाँ देवद्रव्य लगा है.....बहुधा देखा गया है....अशांति की भयंकर आग घर-घर में लग गई है....गाँव की चैन की नींद कोसों दूर भाग गई है। और ब्याज सहित देवद्रव्य में भरपाई करते ही पुन: सुख शांति हो जाती है। प्रतिष्ठा आदि में जितनी शक्ति हो उतनी ही बोलियाँ लगानी चाहिये और ईमानदारी यह है कि प्रभु के पैसे भरने के बाद ही उस बोली का लाभ उठाना चाहिये....नहीं तो कहीं प्रतिष्ठा को बीस रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /110 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004216
Book TitleRe Karm Teri Gati Nyari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages170
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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