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आचारशास्त्रीय चिन्तन का पश्चिम में प्रारम्भ .
ग्रीक दार्शनिकों ने सोफिस्टों के आविर्भाव से पहले अपने आपको ब्रह्माण्ड विज्ञान में संलग्न किया। सोफिस्टों के पूर्व दार्शनिक ने केवल तत्त्वमीमांसा संबंधी समस्याओं में अपने आपको लगाया। सोफिस्ट जो ईसा पूर्व पाँचववीं शताब्दी में हुए, उन्होंने दार्शनिकों का ध्यान मानवीय चारित्र पर आकर्षित किया। इस तरह से उन्होंने दार्शनिकों को प्रकृति से मनुष्य की तरफ मोड़ा। इससे सोफिस्टों के चिन्तन में मानवीय आचार का उदय हुआ। फलस्वरूप सोफिस्ट आचारशास्त्रीय विज्ञान के जनक कहे जा सकते हैं। जैन चिन्तकों का आचारशास्त्रीय चिन्तन 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से माना जा सकता है। उनका अस्तित्व आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व था। यद्यपि जैन परम्परा अपने दर्शन के प्रारम्भ को बहुत प्राचीन काल से मानती है। समस्या और चिन्तन दृष्टि
आचारशास्त्रीय चिन्तन का संबंध मानवीय चारित्र के उच्चतम उद्देश्य से है। यह चिन्तन मानवीय चरित्र का उचित-अनुचित और शुभ-अशुभ के रूप में मूल्यांकन करता है। चारित्र से यहाँ अभिप्राय है ऐच्छिक क्रियाएँ जिनकी पूर्व मान्यता है- व्यक्तियों का अस्तित्व। आचारशास्त्रीय चेतना के पश्चिम में उदय होने से विभिन्न चिन्तनदृष्टियाँ नैतिक क्षेत्र में उत्पन्न हुई। हम यहाँ केवल सोफिस्ट, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, बैन्थम और मिल व कान्ट के संबंध में चर्चा करेंगे और उनकी जैन आचार से तुलना करेंगे। (1) आचारशास्त्रीय आदर्श की समस्या- सोफिस्ट
यह कहा जाता है कि “सोफिस्ट दर्शनशास्त्र को स्वर्ग से मनुष्य के आवास तक लाये और उन्होंने उसका ध्यान बाह्य प्रकृति से मनुष्य
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