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की ओर मोड़ा क्योंकि उन्होंने मनुष्य का महत्त्व सर्वोपरि माना।" सोफिस्टों के समय तक यूनानी दार्शनिक जगत के मूल को पाने में लगे हुए थे। सोफिस्टों ने इसकी तरफ निषेधात्मक दृष्टिकोण अपनाया और उन्होंने यह कहा कि “मनुष्य ही सब वस्तुओं का मापदण्ड है" और "सत्य व्यक्ति के सापेक्ष है।''2 इसका प्रभाव यह हुआ कि आचारशास्त्र आत्मगत और सापेक्ष हो गया। इस तरह से जितने व्यक्ति होंगे उतने ही आचारशास्त्रीय उद्देश्य होंगे। इसका परिणाम यह हुआ कि आचारशास्त्र के क्षेत्र में अराजकता हो गयी। यद्यपि प्रोटोगोरस की प्रवृत्ति नैतिकता
और ज्ञान के क्षेत्र में आत्मगत थी, फिर भी उसका देय यह था कि उसने मनुष्य के महत्त्व को सर्वोपरि माना है। इसके परिणामस्वरूप नैतिकता ने अहंवादी दृष्टिकोण अपना लिया। किन्तु हमको यह समझना चाहिये कि एकान्तिक अहंवादी दृष्टिकोण हानिकारक है।' यह सत्य है कि सोफिस्टिक आन्दोलन ने मनुष्य के विचारों को जगाया और दर्शन, धर्म आदि को चुनौती दी और बुद्धि को इनके लिए महत्त्वपूर्ण माना।
- 'जिस युग में महावीर हुए वह सोफिस्टों से मिलता-जुलता था। प्रोटोगोरस के समान महावीर ने तत्त्वमीमांसात्मक चिन्तन की निन्दा नहीं की. किन्तु आत्मगतसापेक्षवाद का खण्डन किया। इन्होंने ज्ञानात्मक वस्तुनिष्ठा का प्रतिपादन किया। इस तरह से द्रव्य के स्वभाव में अनेकता का उल्लेख किया और वे अनेकान्तवाद के पोषक हो गये। इसका प्रभाव आचारशास्त्रीय चिन्तन पर पड़ा और यह निष्कर्ष निकला
2. 3. 4:
History of Philosophy, P.61 History of Philosophy, P.57 Short History of Ethic, P.34 * History of Philosophy, P.61, 62
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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