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आठवाँ अध्याय जैन और पाश्चात्य आचारशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रकार
पूर्व अध्याय का संक्षिप्त विवरण
जैन और जैनेतर भारतीय आचारशास्त्रीय सिद्धान्त' नामक पूर्व अध्याय में प्रथम, हमने उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण का निरूपण किया है। द्वितीय, हमने गीता और उपनिषदों द्वारा निरुपित नैतिक आदर्श के स्वरूप का वर्णन किया है। तृतीय, आदर्श की प्राप्ति का अवरोध करनेवाली बाधाओं के स्वरूप का उल्लेख किया है, सुप्त और जाग्रत आत्माओं के भेद पर विचार किया है और ज्ञान. के लिए गुरु के महत्त्व को समझाया है। चतुर्थ, हमने आध्यात्मिक प्रेरकों का वर्णन किया है तथा श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के महत्त्व की व्याख्या की है जिससे हम नैतिक और आध्यात्मिक विकास के बाधक तत्त्वों को जीत सकें। पंचम, चारित्र के निषेधात्मक पक्ष जिसमें कषायों के त्याग का वर्णन, इन्द्रिय और मन का संयम और सकारात्मक पक्ष जिसमें सद्गुणों के विकास सहित भक्ति और ध्यान का प्रतिपादन किया गया है। छठा, आदर्श मुनि की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। सातवाँ, मुख्य भारतीय दर्शनों के नैतिक आदर्श के स्वरूप को और आवागमनात्मक जीवन के अस्तित्व के कारणों को
और रहस्यात्मक जीवन की प्राप्ति की प्रक्रिया को बताया गया है। अंत में योग के अष्टांग मार्ग और बुद्ध के चार आर्य सत्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है।
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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