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घोषणा अर्थात् दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निरोध और दुःखनिरोध का मार्ग- ये उसके आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण का संक्षेप है।" जैनधर्म के सात तत्त्वों में से पाँच तत्त्वों- आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की तुलना बुद्ध के चार आर्यसत्यों से की जा सकती है। बंध दुःख का द्योतक है, आस्रव दुःख का मूल है, संवर और निर्जरा दुःखनिरोध के उपाय है और मोक्ष दुःख का पूर्ण निरोध है। - पहले आर्यसत्य का संबंध सर्व लौकिक दुःखों के अनुभव से है। जन्म, जरा, मृत्यु, विलाप, दुःख का संसर्ग, अतृप्त इच्छा और सुख से विच्छेद सभी दुःखपूर्ण होते हैं। जैनधर्म के अनुसार कर्मबंधन दुःख के तुल्य है।
दूसरा आर्यसत्य, दुःख का कारण है जिसे प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त से समझाया जा सकता है। इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व कारण पर आश्रित होता है। (1) जरा मरण का कारण है- (2) जाति अर्थात् जन्म, जाति का कारण है- (3) भव अर्थात् जन्म की इच्छा, भव का कारण है- (4) उपादान अर्थात् सांसारिक विषयों से लिपटे रहने की अभिलाषा, उपादान का कारण है(5) तृष्णा अर्थात् विषयभोग की वासना, तृष्णा का कारण है(6) वेदना अर्थात् इन्द्रियों से उत्पन्न सुखानुभूति, वेदना का कारण है(7) स्पर्श अर्थात् इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क, स्पर्श का कारण है- (8) षडायतन अर्थात् ज्ञान की पाँच इन्द्रियाँ तथा मन, षडायतन का कारण है- (9) नामरूप अर्थात् गर्भस्थ भ्रूण का शरीर और मन, नामरूप का कारण है- (10) विज्ञान अर्थात् चैतन्य, विज्ञान का कारण है- (11) संस्कार अर्थात् पूर्वजन्म का संस्कार, संस्कार का कारण है(12) अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञान। संसार की प्रक्रिया का मूल कारण
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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