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________________ अनादिकालीन अविद्या है। संसार की प्रक्रिया के माता-पिता अनादिकालीन अविद्या और तृष्णा है । 329 “ अविद्या के प्रभाव के अन्तर्गत त्रुटिपूर्ण रूप से अनित्य नित्य समझ लिया जाता है । " 330 डॉ. राधाकृष्णन् कहते हैं कि 'अहं' और 'चार आर्यसत्यों' के सच्चे स्वरूप के बारे में अज्ञान अविद्या है। 3 31 जैनधर्म के अनुसार साम्परायिक आस्रव का कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र है जो संसार की प्रक्रिया के मूल में है। तीसरा आर्यसत्य, दुःखनिरोध या निर्वाण की प्राप्ति है। कार के नष्ट होने से कार्य समाप्त हो जाता है। निर्वाण का अर्थ है बुझना या शीतल होना । पूर्ववर्ती का अर्थ है नष्ट होना और परवर्ती का अर्थ है कषायों की समाप्ति। इस तथ्य को मानना कि बुद्ध को दिव्य प्रकाश मिला और उसने मानव जाति के उत्थान के लिए उपदेश दिया इससे यह सिद्ध होता है कि निर्वाण का अर्थ बुझना नहीं है उसका अर्थ है केवल कषायों का नाश । निर्वाण के स्वरूप के बारे में अनिश्चितता का कारण यह है कि बुद्ध ने निर्वाण के प्रश्न का जवाब देना नैतिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण नहीं माना। 332 " बुद्ध के मौन का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि मुक्ति की अवस्था साधारण अनुभव से नहीं समझायी जा 329. लंकावतार सूत्र, पृष्ठ 138 (vide Tatia, Studies in Jaina Philosophy, P. 127) 330. Studies in Jaina Philosophy, P. 127 331. Indian Philosophy, Vol.1, P. 416 332. पोट्टपाद सुत्त, 9/3 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (59) www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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