SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतनी समानताएँ होते हुए भी योगदर्शन से कुछ आधारभूत भेद है। योगदर्शन में आत्मजाग्रति का उल्लेख नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है कि इसने आत्मजाग्रति और नैतिक परिवर्तन को गड्डमड्ड कर दिया है। इसके अतिरिक्त योगदर्शन में गुरु के महत्त्व को और आरोहण से पतन की संभावना को भी स्वीकार नहीं किया है। प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान को भी महत्त्व नहीं दिया गया है। ये सभी घटक रहस्यात्मक विकास के लिए बहुत आवश्यक हैं। बुद्ध के चार आर्यसत्य अब हम प्रारंम्भिक बौद्ध धर्म पर विचार करेंगे। बुद्ध का दृष्टिकोण निम्नलिखित कथन से पहचाना जा सकता है। जो व्यक्ति आत्मा और जगत पर उस समय सैद्धान्तिक चिन्तन करता है जब कि वह दुःख में तड़प रहा है ऐसा व्यक्ति उस मूर्ख आदमी की तरह होता है जो जहरीला तीर पार्श्व भाग में घुस गया हो उस समय तीर को तुरन्त निकालने के बजाय उसकी उत्पत्ति, निर्माता और फेंकनेवाले का व्यर्थ रूप से चिन्तन करता है।326 अत: डॉ. राधाकृष्णन् उचित रूप से कहते हैं कि “बुद्ध के प्रारंभिक शिक्षण में तीन विशेषताएँ रही हैं - ( 1 ) आचार संबंधी गंभीरता, ( 2 ) ईश्वरीय प्रवृत्ति का अभाव और (3) तत्त्वमीमांसक चिन्तन के प्रति विकर्षण | 327 उसने चार आर्यसत्यों 328 की 326. मज्झिम - निकाय - सुत्त, 63 ( Warren, P. 120. vide An Introduction to Indian Philosophy) 327. Indian Philosophy, Vol.1, P. 358 328. अंगुत्तर - निकाय 3/61, 6 दीघ - निकाय, 22 /4, 5 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (57) www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy