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करता है। गीता के अनुसार उसके सभी कार्य इच्छा-रहित होते हैं। आत्मसंयम, परिग्रह का त्याग और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण240 वह मानव कल्याण के लिए किये गये कर्मों से बंधन प्राप्त नहीं करता है।241 दूसरे शब्दों में, वह कर्मों के फल से उसी प्रकार मलिन नहीं होता है जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी से मलिन नहीं होता है।242 संक्षेप में, परिपूर्ण योगी कर्म में अकर्म को देखता है या अकर्म में कर्म को देखता है।243
जैनधर्म के अनुसार परिपूर्ण रहस्यवादी ने सारी कषायों का उन्मूलन कर दिया है और अनुभव से परितोष प्राप्त किया है।244 उसके मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाएँ न तो इच्छा से प्रेरित होती हैं न अज्ञान से उत्पन्न होती हैं।245 खड़े होने, बैठने, चलने और उपदेश देने, जानने और देखने की क्रियाएँ इच्छा से उत्पन्न नहीं होती हैं। परिणामस्वरूप वे आत्मा को बंधन में डालने में असमर्थ हैं।246 जिस प्रकार एक माँ बच्चे को उसी के लाभ के लिए शिक्षित करती है और एक दयालु चिकित्सक रोगी का इलाज करता है उसी प्रकार पूर्णता प्राप्त रहस्यवादी विकास के लिए मनुष्य जाति को शिक्षित करता है और दुःखी मानवता के लिए
240. भगवद्गीता, 4/21; 5/7 241. भगवद्गीता, 3/25 242. छान्दोग्योपनिषद्, - 4/14/3 243.. भगवद्गीता, 4/18 244. स्वयंभूस्तोत्र, 67
बोधपाहुड, 40 245. स्वयंभूस्तोत्र, 74 246. स्वयंभूस्तोत्र, 73
नियमसार, 173, 174, 175
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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