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• राजस और तामस) से परे जाने के लिए आवश्यक है।23 चार प्रकार के भक्त गिनाये गये हैं अर्थात् आर्त भक्त (सांसारिक पदार्थों के लिए भक्ति करनेवाला), जिज्ञासु भक्त (यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भक्ति करनेवाला), अर्थार्थी भक्त (संकट निवारण के लिए भक्ति करनेवाला)
और ज्ञानी भक्त (निष्कामी भक्त)।224 इनमें से ज्ञानी भक्त सबसे उत्तम माना गया है। गीता कहती है कि उच्च विकास के लिए भक्ति को टाला . नहीं जा सकता है।
जैनधर्म में भक्ति को सोलह प्रकार की भावनाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।225 मुनि के षट् आवश्यकों के लिए,226 गृहस्थ के द्वारा प्रतिदिन की जानेवाली जिनपूजा के लिए तथा आध्यात्मिक विकास के लिए भक्ति को आवश्यक माना गया है। मोक्षपाहुड का कहना है कि देव और गुरु की भक्ति में लीन होनेवाला मोक्ष के मार्ग पर स्थित है।227 इस प्रकार की भक्ति को सगुण भक्ति कहा जा सकता है
और निर्गुण भक्ति की तुलना ध्यान से की जा सकती है। गीता के निम्न तीन प्रकार के भक्त- आर्त, जिज्ञासु और अर्थार्थी की तुलना जैनधर्म की निदानपूर्वक भक्ति से की जा सकती है। जैनधर्म में प्रतिपादित है कि भक्ति बिना ईश्वर के अस्तित्व के संभव है। 223. भगवद्गीता, 14/26 224. भगवद्गीता, 7/16, 17 225. सोलह प्रकार की भावनाएँ-(1) दर्शनविशुद्धि, (2) विनयसम्पन्नता, (3) शील
व्रतेष्वनतिचार, (4) अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, (5) संवेग, (6) शक्तितस्त्याग, (7) शक्तितस्तप, (8) साधु-समाधि, (9) वैयावृत्त्य, (10) अर्हन्त भक्ति, (11) आचार्य भक्ति, (12) बहश्रुत भक्ति, (13) प्रवचन भक्ति, (14) आवश्यकापरिहार,
(15) मार्गप्रभावना और (16) प्रवचनवात्सल्य। 226. छह आवश्यक- (1) सामायिक, (2) स्तुति, (3) वंदना , (4) प्रतिक्रमण, (5)
प्रत्याख्यान और (6) कायोत्सर्ग। 227. मोक्षपाहुड, 52, 82
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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