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.. अतिथिसंविभागवत10 और गीता का सात्त्विक दान समान हैं। यह ध्यान
देना महत्त्व का है कि सारे शुभ कार्य माया, मिथ्या और निदान-211 (सांसारिक लाभ की इच्छा) रहित होकर करना चाहिये। सांसारिक लाभ की इच्छा यद्यपि निन्दित की गयी है किन्तु आध्यात्मिक लाभ की प्रशंसा की गयी है-12 जिससे सभी सद्गुण उत्पन्न होते हैं। चारित्र का सकारात्मक पक्ष- ध्यान
मुण्डकोपनिषद् ध्यान का महत्त्व बताते हुए कहता है कि न तो नेत्रों से, न वाणी से, न दूसरी इन्द्रियों से, न तप से, न किसी कर्म से परमात्मा ग्रहण किया जा सकता है किन्तु शुद्ध अन्त:करणवाला व्यक्ति ध्यान से ही परमात्मा का अनुभव कर पाता है।213 श्वेताश्वतरोपनिषद् के अनुसार परमात्मा का निरन्तर ध्यान करने से, मन को उसमें लगाये रखने से माया की निवृत्ति हो जाती है।214 भगवद्गीता के अनुसार ऊँचाईयों पर चढ़ने के लिए योगी को सब इच्छाओं को, और परिग्रह को तिलांजलि देनी चाहिये। वह मन और इन्द्रियों को जीते और एकान्त में बिना किसी बाधा के परमेश्वर का ध्यान करे।15
मोक्षपाहुड कहता है कि जो संसाररूपी भयानक समुद्र को पार करना चाहता है वह सब कषायों को त्यागकर सांसारिक व्यस्तताओं से अपने आपको दूर करके और मौन धारण करके शुद्ध आत्मा का ध्यान
210. सर्वार्थसिद्धि, 7/21, 38, 39 211. सर्वार्थसिद्धि, 7/18 212. अमितगति श्रावकाचार, 20, 21, 22 213. मुण्डकोपनिषद्, 3/1/8 214. श्वेताश्वेतरोपनिषद्, 1/1/10 215. भगवद्गीता, 6/10, 23, 24, 25, 26
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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