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________________ यदि हम जैनधर्म की उपनिषदों से तुलना करें तो हम यह पाते हैं कि दोनों ने स्वाध्याय को सर्वोत्तम तप कहा है।206 जैनधर्म अहिंसा को आधारभूत सिद्धान्त मानता है किन्तु उपनिषद् सत्य के पक्ष में सबसे अधिक है। गृहस्थ जो ब्रह्मचर्याणुव्रत, सत्याणुव्रत तथा अतिथिसंविभागवत का पालन करता है वह लगभग उपनिषदों के द्वारा शिष्य के लिए निर्देशित है। गीता से तुलना करने पर हम पाते हैं कि प्रथम चार वर्गों की तुलना जैनधर्म में प्रस्तावित विभिन्न सद्गुणों से की जा सकती है अर्थात् तीन गुप्ति (मनो-गुप्ति, वचन-गुप्ति, काय-गुप्ति) इन्द्रियों का संयम, शुभास्रव के कारण, सोलह प्रकार की भावनाएँ, कषायों से मुक्ति, पाँच व्रत अर्थात् अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और सत्य तथा दस धर्म अर्थात् क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य। पाँचवें वर्ग की तुलना हम आध्यात्मिक जीवन के लिए कुछ प्रेरकों से कर सकते हैं:07 तथा ज्ञान, चारित्र, अध्ययन, ध्यान, तप का महत्त्व,208 एकान्त, धैर्य, सुख व दुःख में समान रहना तथा राग, द्वेष व मोह को जीतने से भी कर सकते हैं।209 सात्विक तप की तुलना जैनधर्म में वर्णित अंतरंग तप से की जा सकती है। गीता के तप का विस्तार जैनधर्म के अंतरंग व बाह्य तप के अनुसार नहीं है। जैनधर्म के अनुसार तप का मुख्य उद्देश्य देवत्व को प्रकट करना है। अत: राजस और तामस तप जैनधर्म के दृष्टिकोण से मान्य नहीं हैं। 206. मूलाचार, 409 207. (1) अनित्य वस्तुओं की प्रेरक (अनित्यानुप्रेक्षा), (2) अनिवार्य रूप से मृत्यु की प्रेरक (आस्रवानुप्रेक्षा), (3) आवागमन की प्रेरक संसारानुप्रेक्षा), (4) शारीरिक अशुद्धता की प्रेरक (अशुचि-अनुप्रेक्षा) 208. मूलाचार, 968 209. मूलाचार, 950, 816, 880 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (35) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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