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________________ मन बड़ा चंचल, क्रोधी, दृढ़ और बलवान है उसको रोकना वायु को रोकने के समान आसान नहीं है। अभ्यास और अनासक्ति से मन को रोका जाना चाहिए,180 इन्द्रियों को संयम में रखा जाना चाहिए और इच्छाओं का उन्मूलन किया जाना चाहिए। जो व्यक्ति इच्छाओं को जीते बिना इन्द्रियों को बाह्य क्रियाओं से रोकता है वह केवल मिथ्याचारी होता है।182 जैनधर्म के अनुसार इन्द्रियों, इच्छाओं और मन का संयम सर्वोच्च प्रगति के लिए आवश्यक है। मनरूपी बंदर को इन्द्रिय-विषयों में जाते हुए जो रोक लेता है उसको इच्छित फल की प्राप्ति हो जाती है।183 वास्तव में जो असफल हो जाता है उसके लिए शास्त्र का अध्ययन, तप करना, व्रत पालना और शारीरिक तप- ये सभी व्यर्थ हो जाते हैं।184 इन्द्रियरूपी ऊँटों को ढीला नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि सुखरूपी घास को चरने के पश्चात् वे फिर आत्मा को पुनर्जन्म में ले जाते हैं। 85 अत: नेता अर्थात् मन को पकड़ लेने पर अन्य सभी इन्द्रियाँ वश में कर ली जाती हैं क्योंकि जड़ को उखाड़ने पर पत्तियाँ आवश्यक रूप से मुरझा जाती हैं। 86 इच्छा ही इन्द्रियों को मदिरा की तरह उत्तेजित करती है।187 फिर इन्द्रिय-विषयों की इच्छा क्रोधादि कषायों को उत्पन्न 180. भगवद्गीता, 6/34, 35 181. . भगवद्गीता, 3/41 182. भगवद्गीता, 3/6 183. ज्ञानार्णव, 22/23 184. ज्ञानार्णव, 22/28 185. परमात्मप्रकाश, 2/136 186. परमात्मप्रकाश, 2/140 187. ज्ञानार्णव, 17/7 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (31) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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