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मालिक, बुद्धि को सारथि, मन को लगाम, इन्द्रियों को घोड़े, विषयों को उनका मार्ग, मन और इन्द्रियों से युक्त आत्मा को 'भोक्ता' कहा गया है।172 जो व्यक्ति कुशल और दृढ़ चित्तवाला होता है उसके अधीन इन्द्रियाँ उसी प्रकार रहती हैं जैसे सारथि के अधीन घोड़े।173 इसलिए वह जन्म-मरण के चक्र को समाप्त कर देता है और उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहाँ से संसार में वापस नहीं आना है।174 बृहदारण्यक, केन
और तैत्तिरीयोपनिषद् भी आत्मसंयम और आत्मविजय को. प्रस्तावित करते हैं।175
गीता के अनुसार इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इच्छा के निवास स्थान हैं। इनके द्वारा वे ज्ञान को आच्छादित करके संसारी आत्मा को मोहित करती हैं।176 इन्द्रियाँ तथा इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष आत्मा के शत्रु हैं।177 इन्द्रिय-विषयों का चिन्तन करनेवाले की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा के रोकने पर क्रोध उत्पन्न होता है,178 क्रोध के प्रभाव से मोह पैदा होता है, मोह के कारण स्मृति का नाश होता है, स्मृति से बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि के विनाश से वह स्वयं नष्ट हो जाता है।179 172. कठोपनिषद्, 1/3/3, 4 173. कठोपनिषद्, 1/3/6 174. कठोपनिषद्, 1/3/8, 9 175. बृहदारण्यकोपनिषद्, 5/2/1 __ केनोपनिषद्, 4/4/8
तैत्तिरीयोपनिषद्, 1/9 176. भगवद्गीता, 3/40 177. भगवद्गीता, 3/34 178. भगवद्गीता, 2/62 179. भगवद्गीता, 2/63
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