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• “वह इस संसार में जो कि वृद्धावस्था और मृत्यु का घर है, कई बार जन्म-मरण कर चुका है।''119 परमात्मप्रकाश का कथन है कि जिस व्यक्ति ने पुण्य एकत्रित नहीं किया है और तपों का पालन नहीं किया है उसको नरक में गिरना होगा।120 यह एक प्रकार से अपने आपको धोखा देना है यदि मनुष्य जन्म को तप करने के लिए उपयोगी नहीं बनाया गया है। आत्मा तब तक असंख्य जन्मों में फँसी रहती है जब तक उसमें सर्वोच्च ज्ञान का उदय नहीं होता है।121. ..
तृतीय, मैत्री उपनिषद् शारीरिक अपवित्रता के प्रेरक का उल्लेख करता है। उसके अनुसार यह असारभूत शरीर हड्डी, माँस और रक्तादि से बना हुआ है। ऐसे शरीर में इच्छाओं की तृप्ति से क्या लाभ?122 गीता शारीरिक अपवित्रता के बारे में मौन है।
आत्मानुशासन में गुणभद्र का कहना है कि इस शरीर के प्रति राग नहीं करना चाहिए क्योंकि यह एक कारागृह है जो हड्डी, माँस आदि घृणित वस्तुओं से बना हुआ है। शरीर सब बुराइयों की परम्परा का आधार है।123 परमात्मप्रकाश का कहना है कि यह शरीर अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है और उसका शृंगार दुष्ट आदमी का पक्ष लेने के समान व्यर्थ है।124 स्वयंभूस्तोत्र के अनुसार शरीर अपनी क्रिया के लिए आत्मा पर निर्भर है, यह घृणित है, विनाशशील है, दु:खों का कारण है। अत: उसके प्रति राग रखना कार्यकारी नहीं है।125 119. उत्तराध्ययन, 19/46 120. परमात्मप्रकाश, 2/133, 135 121. परमात्मप्रकाश, 2/123 122. Maitri-Upanisad,1/3 (Translation vide 'Principal Upanisads' 123. आत्मानुशासन, 59 124. परमात्मप्रकाश, 2/148, 149 125. स्वयंभूस्तोत्र, 32
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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