________________
पुण्य को भी पाप की तरह छोड़ दें। पूज्यपाद कहते हैं कि अव्रत से पाप होता है और व्रतों के पालन से पुण्य होता है किन्तु मुक्ति दोनों के त्याग से उत्पन्न होती है। साधक को अव्रत को टालने के लिए व्रतों को अपनाना चाहिए और उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए। परमात्मा की अवस्था पुण्य-पाप से परे होती है और ऐसे व्यक्ति जिन्होंने परमात्मा का अनुभव कर लिया है वे संसार-चक्र से मुक्त हो जाते हैं।
छठा, नैतिक आदर्श कर्मों के रूप में व्यक्त किया गया है। ईशावास्योपनिषद् कहता है कि एक मनुष्य को अपने सौ वर्ष के जीवन में कर्मों को लगातार करते रहना चाहिये। भगवद्गीता के अनुसार कर्मयोग या सक्रियता का जीवन उच्चतम आदर्श है। भगवद्गीता का कहना है कि कर्मों को अनासक्ति भाव से और फल की आकांक्षा रहित होकर समतापूर्वक सम्पन्न करना चाहिये।54 यहाँ यह समझना चाहिए कि इस प्रकार कर्मों का करना आत्मा में स्थिरता की प्राप्ति से ही संभव हो सकता है। निष्काम कर्म आध्यात्मिक रूप से प्रकाशित जीवन का स्वाभाविक परिणाम है।
___जैनधर्म के अनुसार तीर्थंकर जीवन में सक्रियता के उदाहरण हैं। तीर्थंकर सभी कर्मों को अनासक्त भाव से करते हैं किन्तु जैनधर्म के
50. 51. 52. 53. 54. 55.
योगसार, 71 समाधिशतक, 83 समाधिशतक, 84 ईशोपनिषद्, 2 भगवद्गीता, 2/47 Vedanta explained, Vol. II, P.527
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
(11)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org