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पाँचवाँ, मुण्डकोपनिषद् का कथन है कि जिसने ब्रह्म का अनुभव कर लिया है उसने सभी पुण्य और पाप को त्याग दिया है और सम्पूर्ण समता भाव की प्राप्ति की है।42 उसी प्रकार कठोपनिषद् कहता है कि परमात्मा धर्म-अधर्म से परे है। गीता के अनुसार ब्रह्म का
अनुभव शुभ-अशुभ से मुक्त कर देता है। जब आत्मा सत्त्व, रज और तम से परे होता है तो वह जन्म-मरण, वृद्धावस्था व दुःख से मुक्त हो जाता है और शाश्वत जीवन को प्राप्त करता है। इस तरह मनुष्य की उपलब्धियों की पूर्णता इस बात में है कि वह नैतिक स्तर से परे हो जाता. है और आध्यात्मिक स्तर की प्राप्ति कर लेता है।46
गीता, उपनिषद् और जैनधर्म इस बात में समान है कि लोकातीत जीवन पुण्य-पाप से परे होता है। कुन्दकुन्द के अनुसार सांसारिक मनुष्य अशुभ को पाप कहते हैं और शुभ को पुण्य कहते हैं किन्तु पुण्य भी मनुष्य को जन्म-मरण के चक्कर में डाल देता है। जिस प्रकार बेड़ी लोहे की हो या सोने की, मनुष्य को बाँधती है उसी प्रकार शुभ-अशुभ चारित्र आत्मा को संसार में भ्रमण कराता है। अत: प्रज्ञावान पुरुष शुभ-अशुभ दोनों को छोड़ देता है। ऐसे मनुष्य बहुत विरल होते हैं जो
42. 43. 44. 45. 46. 47. 48. 49.
मुण्डकोपनिषद्, 3/1/3 कठोपनिषद्, 1/2/14 भगवद्गीता, 9/28, 2/50 भगवद्गीता, 14/20 भगवद्गीता, 2/45, 14/14, 15, 18 समयसार, 145 समयसार, 146 योगसार, 72
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