SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुभव की पूर्ण ऊँचाई पर पहुँच चुके हैं उनके लिए शुद्धनय का ज्ञान उपयोगी है किन्तु जो साधक इतनी ऊँचाई पर नहीं पहुँचे हैं उनको व्यवहारनय का आश्रय लेना चाहिए। 38 इस प्रकार अपरा विद्या और व्यवहारनय वहीं तक सत्य है जहाँ तक वे हमको बौद्धिक रूप से आगे ले जाते हैं किन्तु वे अंतिम नहीं हैं। जिस प्रकार एक व्यक्ति गृहस्थावस्था छोड़कर संन्यास धारण करता है उसी प्रकार व्यवहारनय निश्चय के पक्ष में छोड़ दिया जाता है । 39 निश्चय और व्यवहार का एक दूसरा अर्थ भी जैन ग्रन्थों में दिया गया है। उसके अनुसार आध्यात्मिक अनुभव इन दोनों बौद्धिक दृष्टिकोणों से परे जाता है। 40 अमृतचन्द्र कहते हैं कि शिष्य का ज्ञान उसी समय उचित कहा जायेगा जब वह निश्चय और व्यवहार के स्वभाव को समझकर उन दोनों के प्रति उपेक्षा भाव धारण करेगा अर्थात् वह इन बौद्धिक दृष्टियों से परे चला जायेगा ।" इस व्याख्या के अनुसार हमारे विचार से अपरा विद्या दोनों नयों के समानार्थक है और परा विद्या आध्यात्मिक अनुभव के अनुरूप है। संक्षेप में परा विद्या या अपरा विद्या के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि शुद्धनय अन्तर्दृष्ट्यात्मक अनुभव है जो परा विद्या के अनुरूप है और व्यवहारनय बौद्धिक ज्ञान है जो अपरा विद्या के अनुरूप है। अतः परा विद्या या शुद्धनय को हम नैतिक आदर्श के रूप में समझ सकते हैं जिसका भेद अपरा विद्या या व्यवहारनय से किया जाना चाहिए। समयसार, 12 परमात्मप्रकाश, भूमिका, पृष्ठ 30 समयसार, 142 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 34 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त 38. 39. 40. 41. Jain Education International For Personal & Private Use Only (9) www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy