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अनुसार सभी भव्य आत्माएँ सक्रियता का जीवन जीने में समर्थ नहीं होती हैं। केवल वे ही आत्माएँ जिन्होंने तीर्थंकर अवस्था प्राप्त की है वे ही कल्याणकारी सक्रियता का जीवन जी सकते हैं जबकि दूसरी आत्माएँ केवल ध्यान में डूबी रहती हैं और उनका प्रभाव प्राणियों पर परोक्ष रूप से ही होता है। इस तरह से जैनधर्म के अनुसार सक्रियता का जीवन सार्वभौम नहीं हो सकता लेकिन इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मानव-कल्याण के लिए मुनि के द्वारा किये गये पुण्य कार्य स्वीकार नहीं किये जा सकते। बाधा के रूप में अविद्या
भगवद्गीता और उपनिषद् द्वारा नैतिक आदर्श की अभिव्यक्तियाँ और उनकी जैनधर्म से तुलना करने के पश्चात् अब हम उच्चतम जीवन की प्राप्ति की प्रक्रिया को समझाने का प्रयास करेंगे। प्रथम, हम उस बाधा की ओर ध्यान देंगे जो आत्मा की प्राप्ति को अवरुद्ध करती है। बृहदारण्यकोपनिषद् और कठोपनिषद् का कथन है कि एक ब्रह्म के होते हुए भी जो विश्व में अनेकता को देखता है वह बार-बार मृत्यु के द्वारा ग्रसित होता है। दूसरे शब्दों में अज्ञानी मनुष्य अपने आपको बुद्धिमान मानता हुआ अविद्या में रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह अंधे मनुष्य के द्वारा चलाये जानेवाले अंधे मनुष्य की तरह असहाय होकर भटकता है। ईशावास्योपनिषद् का कथन है कि उस मनुष्य के लिए जो सब प्राणियों में आत्मा को देखता है और सब प्राणियों को
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छान्दोग्योपनिषद्, 8/3/3 कठोपनिषद्, 2/1/10, 11 बृहदारण्यकोपनिषद्, 4/4/19 कठोपनिषद्, 1/2/5
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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