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________________ ही अत्यधिक रूप से जानने योग्य है वो ही चिन्तनीय और दर्शनीय वस्तुओं का विश्राम स्थल है।" भगवद्गीता के अनुसार अमृतमय परमपद," ब्राह्मी स्थिति, 12 ब्रह्म निर्वाण, 13 परम गति, 14 परम शान्ति” और परम सिद्धि"- ये समानार्थक लोकातीत उद्देश्य कहे गये हैं । कठोपनिषद् के अनुसार ब्रह्म या परम पुरुष या शान्त आत्मा जो इन्द्रिय, मन और बुद्धि के पार है साधक की यात्रा का उच्चतम उद्देश्य है जिसको जानने के पश्चात् वह अमरत्व प्राप्त कर लेता है और यही हमारे प्रयत्नों की परिपूर्णता है । " शान्त आत्मा या ब्रह्म शब्दरहित, स्पर्शरहित, रूपरहित, रसरहित और गंधरहित है तथा जो शाश्वत, अविनाशी और 17 18 अनन्त है। 1" जैनधर्म के अनुसार परमात्मा या ब्रह्म उच्चतम आदर्श है। साधक को उसी के बारे में पूछना चाहिए, उसी की इच्छा करनी चाहिए और उसी के शाश्वत ज्ञान - प्रकाश को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। " 19 जैनदर्शन और उपनिषद् - चिन्तकों के अनुसार परमात्मा का स्वरूप बहुत कुछ समान है। परमात्मा शाश्वत है, दोषरहित है, रूप, 9. छान्दोग्योपनिषद्, 8/7/1 10. प्रश्नोपनिषद्, 4 / 7, 8, 9 11. भगवद्गीता, 2/51 12. भगवद्गीता, 2/72 13. भगवद्गीता, 5/25 14. भगवद्गीता, 6/45, 9/32 15. भगवद्गीता, 4/39 16. भगवद्गीता, 14 / 1 17. कठोपनिषद्, 1/3/10, 11, 2/3/7,8 18. कठोपनिषद्, 1/3/15 19. इष्टोपदेश, Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (4) Jain Education International 49 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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