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जब कि परवर्ती मार्ग उसको दुःखपूर्ण इच्छाओं के दलदल में फंसा देता
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(ख) इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार ज्ञानी और श्रद्धावान संन्यासी देवयान मार्ग को चुनता है जिसके परिणामस्वरूप वह ब्रह्म की या मुक्ति की प्राप्ति करता है। इसके विपरीत गृहस्थ जो संसार में लिप्त रहता है वह पितृयान मार्ग से जाता है और इसी संसार में पुनर्जन्म लेता है। इसी तरह गीता ने भी दो मार्ग स्वीकार किये हैंअर्थात् शुक्लमार्ग और कृष्णमार्ग। पूर्ववर्ती मोक्ष का कारण है और परवर्ती पुनर्जन्म का। शुक्लमार्ग आवागमन को समाप्ति की ओर ले जाता है जब कि कृष्णमार्ग जन्म-मरण के चक्र में घुमाता है।
जैनधर्म के अनुसार सिद्धगति और चार गतियाँ मानी गयी हैं अर्थात् देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरकगति। पूर्ववर्ती शाश्वत व अपरिवर्तनीय है। इसको प्राप्त करने में आवागमन पूर्णतया समाप्त हो जाता है जब कि परवर्ती संसार में जन्म-मरण का कारण होती हैं।
द्वितीय, परागति की अनुभूति उस ब्रह्म या आत्मा के समानार्थक है जो लक्ष्य के रूप में साधी जाती है, केवल वो ही वांछनीय है, वो
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छान्दोग्योपनिषद्, 5/10/1, 3, 5
भगवद्गीता, 8/26 • समयसार, 1
गोम्मटसार जीवकाण्ड, 145, 151 कठोपनिषद्, 1/3/10 बृहदारण्यकोपनिषद्, 1/4/8 मुण्डकोपनिषद्, 2/2/2 श्वेताश्वेतरोपनिषद्, 1/1/12
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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