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मद्य, माँस और मधु का त्याग सम्मिलित है। त्यागी जीवन को उन्नत करने के लिए शीलव्रतों का शिक्षण आवश्यक है। मुनि जीवन के लिए सुव्यवस्थित ग्यारह प्रतिमाएँ बतायी गई हैं। गृहस्थ के आचार का वर्णन करने के लिए व्यापक पद्धति के रूप में पक्ष, चर्या और साधन का आधार अपनाया गया। यदि व्यक्ति वर्तमान जीवन के समाप्त होने के कारणों के सम्मुख होता है तो उसको सल्लेखना की प्रक्रिया का सहारा लेना चाहिए, यह प्रक्रिया मृत्यु का आध्यात्मिक स्वागत है। यह मृत्यु के सामने झुकना नहीं है बल्कि निर्भयतापूर्वक और यथेष्ट प्रकार की मृत्यु की चुनौती को स्वीकार करना है। अतः इसका आत्मघात से भेद किया जाना चाहिए।
पूर्ण त्यागमय जीवन (मुनि जीवन) अशुभ भावों के उन्मूलन को संभव बनाता है जो गृहस्थ के आंशिक त्याग की स्थिति में संभव नहीं होता है। मुनिधर्म क्रिया-जगत से पीछे हटना नहीं बल्कि हिंसा-जगत से पीछे हटना है। उच्च और उदात्त मार्ग पर आरोहण आध्यात्मिक प्रेरकों से प्राप्त प्रेरणा के कारण होता है। परम्परा के अनुसार ये प्रेरक बारह अनुप्रेक्षाएँ कही जाती हैं। यदि वे (प्रेरक) गृहस्थ को पूर्ण त्यागमय जीवन में झाँकने की शक्ति प्रदान करते हैं, तो वे साधुओं के लिए पथप्रदर्शक होते हैं। उपर्युक्त वर्णित प्रेरकों के कारण साधक सांसारिक • क्रियाओं व उपलब्धियों के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण रखता है किन्तु
आत्मा के प्रति स्वीकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है। अंतरंग और बाह्य स्वरूप को उत्कृष्ट गुरु के संरक्षण में ग्रहण करने के पश्चात् प्रस्तावित
अनुशासन की प्रक्रिया को प्राप्त करके साधक श्रमण बन जाने का ...' सम्मान प्राप्त कर लेता है।
__Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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