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विभिन्न प्रकार के नैतिक आदर्श उल्लिखित हैं। वे एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं। आत्मा की मुक्ति, परमात्म अवस्था की प्राप्ति, स्वसमय या स्वयंभू अवस्था की उपलब्धि, आत्मा के स्वरूप सत्ता की अनुभूति और ज्ञान चेतना की प्राप्ति, अहिंसा का अनुभव, शुद्ध भावों की प्राप्ति जो शुभ और अशुभ भावों से परे होते हैं, शुद्ध भावों का कर्ता
और भोक्ता होना, लोकातीत मरण की प्राप्ति- ये सब उच्चतम आदर्श माने गये हैं। उच्चतम आदर्श ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और भावात्मक आत्मा में निहित अन्तःशक्तियों का पूरा प्रकटीकरण है।
आत्मा की कलुषितता अनादिकाल से चली आ रही है। मिथ्यात्व से दृष्टि, ज्ञान और चारित्र दूषित हो जाते हैं। इससे दिव्य आदर्श की अनुभूति अवरुद्ध हो जाती है। परिणामस्वरूप सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) प्राप्त किया जाना चाहिए जो ज्ञान और चारित्र को सम्यक् बना देता है और मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रेरक हो जाता है। आत्मा में दृढ़तापूर्वक श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है जब कि सात तत्त्वों में श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है। चारित्र बिना सम्यग्दर्शन के नैतिकता से परे नहीं जाता है, सम्यग्दर्शन या आध्यात्मिक रूपान्तरण सिद्ध करता है कि जैन आचार आध्यात्मिकता का आधार लिये हुए है।
सम्यग्ज्ञान का प्रकाश साधक को अपने अवगुणों को देखने के योग्य बनाता है। सम्यक्चारित्र का पालन उन बातों का उन्मूलन कर देता है जो अनवरत आनन्द और अनन्त ज्ञान को रोकते हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त सम्यक्चारित्र भी मोक्ष के लिए आवश्यक है। वह जो आंशिक रूप से चारित्र का पालन करता है वह पापों का पूर्ण त्याग करने में समर्थ नहीं होता है वह गृहस्थ कहलाता है। गृहस्थ के आंशिक चारित्र में बने रहने के लिए पाँच अणुव्रतों का पालन और
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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