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________________ से जैनधर्म भी सुखों में तो भेद करता है किन्तु उसका मापदण्ड अहिंसा होता है। उस अहिंसा के आधार पर मनुष्य परार्थ के बहुत कार्य कर सकता है। ऐसा करना अहिंसा के सिद्धान्त के अनुरूप है। जैन आचार अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख के स्थान पर सभी लोगों के अधिकतम सुख को स्वीकार करता है। सच तो यह है कि अहिंसा का अनुभव उच्चतम आदर्श है और सुख उसके फलस्वरूप प्राप्त होता है। उपयोगितावादी मात्र भाव को उच्चतम आदर्श बताता है। जो अनुपयुक्त ही प्रतीत होता है क्योंकि आदर्श ज्ञानात्मक और क्रियात्मक जीवन का पहलू है। कान्ट कान्ट के अनुसार उच्चतम शुभ ऐसे नैतिक नियम के सम्मान में कार्य करना है जो निरपेक्ष रूप से बिना परिस्थिति, परिणाम और भावात्मक रूप के आदेशित है। वह कहता है- "इस संसार में शुभ संकल्प के अतिरिक्त कोई भी वस्तु निरपेक्ष रूप से शुभ नहीं कही जा सकती है।” निरपेक्ष आदेश प्रतिपादित करता है कि "ऐसे नियम के अनुसार कार्य करो जो सार्वलौकिक बन सकें।" इस प्रकार ही बौद्धिक प्राणियों का समाज बन सकेगा। जैनधर्म के अनुसार तीर्थंकर ही ऐसा योगी है जो परिस्थितियों, परिणामों और भावनाओं से सीमित नहीं होता है। किन्तु जैनधर्म का कहना है कि ऐसे योगी के कार्य आनन्द उत्पन्न करते हैं। जैनधर्म के अनुसार कान्ट नैतिकता और परा नैतिकता को गड्डमड्ड कर देता है और तर्क की निरपेक्ष पद्धति के कारण विशेष परिस्थितियों पर ध्यान नहीं दे पाता है। कान्ट के अनुसार ब्रह्मचर्य और गरीबों को दान नैतिक नियम नहीं बनाये जा सकते हैं। ये नियम सार्वलौकिक होने पर स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे। Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (71) www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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