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जैनधर्म के अनुसार इस जगत में कोई भी वस्तु जो शुभ कही जा सकती है वह सभी प्राणियों की अहिंसा है। ये सिद्धान्त विशेष परिस्थितियों में भी लागू किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त शुभ भावों को नैतिकता के जीवन से नहीं हटाया जा सकता है। कान्ट ने शुभ भावों को नैतिकता के क्षेत्र से बाहर निकाल दिया जो निष्कासन नैतिक जीवन के लिए हानिकारक है। सांसारिक जीवन में करुणा व सहानुभूति का अत्यन्त महत्त्व है इन्हें कान्ट बिलकुल ही महत्त्व नहीं देता है। सद्गुण- सोफिस्ट, सुकरात, प्लेटो और अरस्तु
सोफिस्टों ने सद्गुण को स्वार्थ से जोड़ा। सुकरात ने कहा'ज्ञान ही सद्गुण' है। ज्ञान ही आवश्यक और पर्याप्त शर्त हैं सद्गुण की। ज्ञान के बिना सद्गुण असंभव है और केवल इसके होने से ही सद्गुणात्मक कर्म संभव हो जाते हैं। इस धारणा के कारण सुकरात ने कहा कि सद्गुण का शिक्षण हो सकता है और यह एक है। भिन्न-भिन्न सद्गुण जैसे धैर्य, परोपकार आदि एक ज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं।
प्लेटो के अनुसार चार प्रकार के मुख्य सद्गुण हैं। पहला, बुद्धि से उत्पन्न सद्गुण ज्ञान है; दूसरा, संवेग भावों से उत्पन्न सद्गुण साहस है; तीसरा, वासना से उत्पन्न सद्गुण संयम है और चौथा सद्गुण न्याय है। न्याय का सद्गुण बुद्धि, संवेग और वासना का संतुलित विकास है। अरस्तु ने दो प्रकार के सद्गुण कहे- (1) बौद्धिक और (2) नैतिक। तार्किक जीवन बौद्धिक सद्गुण है और जीवन में मध्यम मार्ग नैतिक सद्गुण है। उदाहरणार्थ- उदारता का अर्थ है- अतिव्यय और कृपणता का मध्य। साहस का अर्थ है- दुस्साहस और कायरता का मध्य। कुछ
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History of Philosophy, P.70
Ethical Doctrines in Jainism
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