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________________ शरीर के कारागृह में रहना बौद्धिक भाग को अबौद्धिक भाग से मिश्रण करना है। इस दृष्टिकोण से नैतिक आदर्श आत्मा के विभिन्न भागों में सामंजस्य स्थापित करना है। आत्मा के अबौद्धिक भाग नष्ट नहीं होते हैं किन्तु बुद्धि की अधीनता स्वीकार कर लेते हैं। ऐसा मनुष्य मित्रों को और देश को चोरी व धोखा नहीं देगा और उसके जीवन में आनन्द फलित होगा। इस तरह प्लेटो के इस दृष्टिकोण ने संकुचित तपस्यावाद को टाला और सामाजिक शुभ के लिए स्थान बनाया । अरस्तु ने प्लेटो के लोकातीतवाद का खण्डन किया और वस्तुओं में 'प्रत्ययों' को व्याप्त बताया और बौद्धिक जीवन को नैतिक आदर्श के रूप में प्रतिपादित किया। उसके अनुसार बौद्धिक जीवन की अनुभूति सर्वोपरि है। मनुष्य के अबौद्धिक ( वासनात्मक) भागों का बौद्धिक भागों से अरस्तु ने समन्वय करने का प्रयास किया। बौद्धिक नियंत्रण के कारण अबौद्धिक भागों का सामाजिक कल्याण के लिए उपयोग किया जा सकता है। जैनदर्शन के अनुसार शुभोपयोगी बुद्धि ( महाव्रती बुद्धि) की तुलना बौद्धिक जीवन से की जा सकती है किन्तु जैनदर्शन के अनुसार अबौद्धिक (वासनात्मक) भाग शुभोपयोगी जीवन में कोई महत्त्व नहीं रखता है। फिर भी जैनदर्शन के अनुसार वासनारहित शुभोपयोग का सामाजिक कल्याण से विरोध नहीं है, किन्तु यह शुभोपयोगी बुद्धि बहुत थोड़े लोगों के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अतः अरस्तु की दृष्टि जिसमें बौद्धिक व अबौद्धिक सामंजस्य स्थापित किया गया है उसकी तुलना अणुव्रत की धारणा से की जा सकती है। अणुव्रत की धारणा में 7. History of Philosophy, P. 90 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (69) www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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