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जिसका उदाहरण आचार्य और अरिहंत का जीवन है। सिनिक्स सामाजिक अपरिग्रह की धारणा को विकसित नहीं कर सके। जिसका परिणाम यह हुआ कि सामाजिक जीवन का आधार खतरे में पड़ गया। जैनधर्म के अनुसार अणुव्रत तपस्वी जीवन और इन्द्रियभोगों में सामंजस्य स्थापित करता है। महाव्रतों का जीवन यद्यपि व्यक्तिवादी प्रवृत्ति है किन्तु सामाजिक शुभ से असंगत नहीं है। सिरेनैक्स सुख की अहंवादी दिशा में बढ़े। यह दृष्टि जैनधर्म को स्वीकृत नहीं है। सुखवादी अहंवाद शारीरिक चेतना से परे नहीं जाता है और यह. परोपकारी कार्यों को घृणा की दृष्टि से देखता है। प्लेटो और अरस्तु
प्लेटो के अनुसार प्रत्ययों' के लोकातीत जगत से सत्य का निर्माण होता है और बुद्धि आत्मा का सर्वोत्कृष्ट पक्ष है। संसारी वस्तुएँ 'प्रत्ययों' की छाया हैं। परिणामस्वरूप वस्तुओं की तरह शरीर और इन्द्रियाँ भी आत्मा के स्वभाव से भिन्न हैं। व्यक्ति का वास्तविक जीवन
आत्मा का शरीर से स्वतंत्र होना है और प्रत्यय' जगत का चिंतन करना है। जीवन का वास्तविक उद्देश्य भूतकाल की स्मृतियों को चेतना के स्तर पर लाना है जब कि आत्मा ने 'प्रत्ययों' का ज्ञान किया था। जीवन की वास्तविक कला इन्द्रिय जगत से मरने की कला है जिससे निरपेक्ष शुभ और सौन्दर्य से एकत्व स्थापित हो सके। प्लेटो की यह तपस्वी प्रवृत्ति रहस्यवाद में समाप्त होती है।
प्लेटो के नैतिक आदर्श का एक दूसरा पहलू भी है जिसके अनुसार जगत की वस्तुएँ प्रत्यय' जगत में सहभागी होती हैं। आत्मा का 5. Outlines History of Ethic, P.41 6. History of Philosophy, P.91
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Ethical Doctrines in Jainism
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