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क्रियाएँ ध्यान की पृष्ठभूमि का निर्माण करती हैं। जैसे पानी का संग्रहण जो अनाज के खेत को सींचने के लिए काम आता है, उसको पीने और दूसरे उद्देश्यों के लिए भी काम में लिया जा सकता है, उसी तरह अनुशासनात्मक गुप्ति, समिति आदि क्रियाएँ जो नये कर्मों के आस्रव की समाप्ति के लिए की जाती हैं, वे ध्यान की पृष्ठभूमि का निर्माण करने के लिए भी कही जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में सभी अनुशासनात्मक क्रियाओं का पालन ध्यान की पराकाष्ठा में समाप्त होता है। इस प्रकार ध्यान सम्यक्चारित्र का अनिवार्य संघटक है। परिणामस्वरूप यह दिव्य अन्तःशक्तियों के प्रकटीकरण के लिए सीधे रूप से संबंधित है और यह ही अकेला मार्ग है जिस पर चलकर साधक उच्चतम आदर्श की ओर सीधा जा सकता है।
ध्यान एक विशेष वस्तु पर मन की एकाग्रता को बताता है जो एकाग्रता अधिक से अधिक एक अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट से कम समय) के लिए संभव है और वह भी उन व्यक्तियों के लिए जिनका शरीर सर्वोत्तम होता है।180 दूसरे शब्दों में किसी एक वस्तु पर विचारों की स्थिरता ध्यान कहा जाता है। एकाग्रता की वस्तु अपवित्र हो सकती है या पवित्र भी। मन या तो निम्नकोटि की वस्तु पर एकाग्र हो सकता है या उन्नत वस्तु पर एकाग्र हो सकता है। पूर्ववर्ती जो अशुभ कर्मों के आस्रव का कारण है अशुभ ध्यान (अप्रशस्त ध्यान) के नाम से कहा जाता है। जब कि परवर्ती जो कर्मों के निराकरण से संबंधित होता है शुभ ध्यान (प्रशस्त ध्यान) कहा जाता है।181 संक्षेप में, ध्यान या तो
179. राजवार्तिक, 9/27/26 180. राजवार्तिक, 9/27/10-15 181. सर्वार्थसिद्धि, 9/28
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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