SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दैदीप्यमान रत्नों को हमें प्रदान करने में समर्थ होता है या काँच के टुकड़ों को देने में। जब दोनों वस्तुएँ संभव होती हैं तो विवेकपूर्ण व्यक्ति इन दोनों में से किसको चुनेगा ? 182 इस तरह से ध्यान दो प्रकार का होता है- प्रशस्त और अप्रशस्त । पूर्ववर्ती के अन्तर्गत दो प्रकार का ध्यान है - धर्मध्यान और शुक्लध्यान । परवर्ती में भी दो प्रकार का ध्यान है- आर्तध्यान और रौद्रध्यान | 183 प्रशस्त ध्यान साधक को मोक्ष की ओर ले जाने में समर्थ है । 184 इसके विपरीत अप्रशस्त ध्यान सांसारिक दुःखों की ओर ले जाता है।'' इस प्रकार जो मोक्ष के लिए इच्छुक हैं उनको आर्तध्यान और रौद्रध्यान त्याग देना चाहिए | 186 तप के रूप में ध्यान का संबंध प्रशस्त प्रकार के ध्यान से है क्योंकि वह ही अकेला है जो शुद्ध जीवन से संबंध जोड़ता है। अब हम सर्वप्रथम अप्रशस्त ध्यान के स्वरूप पर विचार करेंगे। प्रशस्त ध्यान तप का स्वीकारात्मक पक्ष है और अप्रशस्त ध्यान निषेधात्मक पक्ष है। 185 आर्तध्यान आर्त का अर्थ है- दुःख और वेदना और उससे उत्पन्न विचारों का चिन्तन करना। 187 इस दुःखपूर्ण संसार में अनन्त वस्तुएँ हैं जो 182. इष्टोपदेश, 20 183. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 469 तत्त्वार्थसूत्र, 9/28 184. तत्त्वार्थसूत्र, 9/29 185. सर्वार्थसिद्धि, 9/29 186. तत्त्वानुशासन, 34, 220 187. सर्वार्थसिद्धि, 9/28 (48) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy