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है- सम्मान, मैत्री, आदर, गुरु का प्रसाद, जिनदेव की आज्ञा का पालन और दुष्ट विचारों का विनाश। जब कि विनय का अंतरंग परिणाम हैआत्मसंयम, ज्ञान की प्राप्ति, आत्मा की शुद्धता, कृतज्ञता का भाव, सरलता, दूसरे मनुष्यों के गुणों की प्रशंसा, अहंकार का नाश और अंत में मोक्ष की प्राप्ति।174 (3) वैयावृत्त्य- जब मुनि रोग, परीषह और मिथ्यात्व से ग्रसित हो जाते हैं उस समय मुनियों की सेवा दवा या उपदेश से की जाती है वह वैयावृत्त्य कहलाती है।175 इस तपस्या का उद्देश्य आध्यात्मिक मार्ग के प्रति अनुराग का भाव प्रकट करना है। 76 (4) स्वाध्याय- स्वाध्याय का वर्णन 'जैन आचार का रहस्यात्मक महत्त्व' नामक अगले अध्याय में किया जायेगा। (5) व्युत्सर्ग- बाह्य और अंतरंग परिग्रह का त्याग व्युत्सर्ग है।17 पूर्ववर्ती के अन्तर्गत चेतन और अचेतन परिग्रह का त्याग है और परवर्ती के अन्तर्गत कषायों का त्याग है।78 (6) ध्यान- पाँच प्रकार के अंतरंग तपों का वर्णन करने के पश्चात् अब हम ध्यान के स्वरूप और उसके प्रकारों के बारे में विचार करेंगे। ध्यान का सामान्य स्वरूप और उसके प्रकार
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि सभी अनुशासनात्मक
174. मूलाचार, 386-388
भगवती आराधना, 129-131 175. मूलाचार, 391, 392
सर्वार्थसिद्धि, 9/24 176. सर्वार्थसिद्धि, 9/24 177. मूलाचार, 406
सर्वार्थसिद्धि, 9/26 178. मूलाचार, 407
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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