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________________ आदि से स्वतंत्र हो जाता है और शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रखता है । 46 इसके अतिरिक्त उसका आन्तरिक स्वरूप ऐसा निर्मित होता है कि वह आवागमन को निषेध करने का कारण बनता है। वह मोह से दूर हो जाता है और अपने भावों और क्रियाओं को शुद्ध करता जाता है। 47 अंतरंग और बाह्य साथ-साथ रहते हैं यह याद रखना चाहिए कि अंतरंग और बाह्य स्वरूप एक दूसरे के साथ-साथ चलते हैं। समन्तभद्र का मत है कि जिस प्रकार सांसारिक क्रियाओं में अंतरंग और बाह्य कारणों के साथ-साथ होने से कार्य सम्पन्न होता है उसी प्रकार मोक्ष की प्रक्रिया में भी यह शाश्वत नियम काम करता है।" वे एक ही सिक्के के अग्रभाग और पृष्ठभाग हैं। अतः न तो केवल बाह्य पक्ष पर और न केवल अंतरंग पर जोर देना चाहिए । ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, परस्पर विरोधी नहीं हैं। वे लोग जो जैनधर्म द्वारा प्रस्तावित बाह्य त्याग की निंदा करते हैं वे इस बात को भूल जाते हैं कि जैन आचार्यों ने अंतरंग पक्ष के महत्त्व पर भी जोर दिया है। जैनधर्म यह बात स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य की आन्तरिक आध्यात्मिकता बाह्य जीवन में प्रकट हुए बिना रह सकती है। वह अंतरंग आध्यात्मिकता के बिना केवल बाहरी त्याग की पूर्णरूप से निंदा करता है। अंतरंग अवस्था बिना बाह्य अभिव्यक्ति के और बाह्य अभिव्यक्ति बिना अंतरंग अवस्था के ( दोनों ही ) एकान्त हैं। केवल बाह्य बोझिल हो जाता है और केवल अंतरंग बोधगम्य नहीं होता है। यह विश्वास करते हुए कि अंतरंग शुद्धता बाह्य तपों में अपनी स्थिरता के लिए प्रकट होगी जैसे तेल बीज के बाह्य आवरण से विकृत होने से बच 46. प्रवचनसार, 3/5 47. प्रवचनसार, 3/6 (ए. एन. उपाध्ये का अनुवाद) 48. स्वयंभूस्तोत्र, 33, 60 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (13) www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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