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जाता है या गिरी बाह्य छिलके से सुरक्षित हो जाती है, जैनाचार्यों ने मानसिक शुद्धता के महत्त्व पर तथा तीव्र कषायों के संयम पर जोर दिया
आध्यात्मिक ज्ञान से रहित व्यक्ति के लिए बाह्य तप करते हुए भी कर्मों को नष्ट करने के लिए करोड़ों जीवन भी कम प्रतीत होते हैं, वे कर्म आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति के द्वारा क्षण भर में नष्ट किये जा सकते हैं। आध्यात्मिक भूमिका के बिना जो बाह्य तंपों में लीन है उस अज्ञानी जीव को समझाने के लिए यह उपर्युक्त बात पर्याप्त है। वास्तव में ये दोनों पक्ष गुंथे हुए हैं अत: दोनों मूल्यवान और न्यायसंगत हैं। बाह्य परिग्रह को छोड़ने का उद्देश्य है- अंतरंग तीव्र कषाय और इच्छा को त्यागना, जिसके बिना बाह्य त्याग (तप) विवेकहीन और निरर्थक है। जरा-सी भी अंतरंग मलिनता आत्मा को उच्चतम अवस्था में जाने से रोकती है जैसे महान तपस्वी बाहुबलि के जीवन में घटित हुआ। शिवभूति जिनके भाव शुद्ध थे उन्होंने तुष-मास भिन्न कहकर ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया यद्यपि वे आगम-ज्ञान से रहित थे। इस प्रकार धार्मिक अनुशासन और तप, शास्त्रस्वाध्याय और ज्ञान अपने उचित परिणामों को भावों की अनुपस्थिति में उत्पन्न नहीं करते हैं। कभी-कभी वे उच्च सम्मान प्राप्त करते हैं तो भी भावों की शुद्धता विचारों में अन्तर्निहित होती है यद्यपि स्पष्टरूप से भाषा में अभिव्यक्ति न की गई हो।
49. प्रवचनसार, 3/38 50. भावपाहुड, 3 51. भावपाहुड, 53
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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