________________
करेंगे। आत्मा का ध्यान करना सम्यक्चारित्र है और आध्यात्मिक विकास के लिए इसका पालन अनिवार्य है।" धर्म जो सम्यक्रूप से कहा गया है अहिंसा उसका वास्तविक लक्षण है; सत्य उसका आधार है; विनयशीलता उसका मूलकारण है; क्षमाशीलता उसकी शक्ति है; संयम उसका कवच है; आत्म-नियंत्रण उसकी आवश्यकता है और अपरिग्रह उसका सहारा है। मुनि-जीवन का औपचारिक ग्रहण
उपर्युक्त वर्णित प्रेरकों के कारण साधक सांसारिक क्रियाओं के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण रखता है किन्तु आत्मा के प्रति स्वीकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है। वह सभी प्रकार के सांसारिक संबंधों से विदाई ले लेता है और सम्यक् अनुशासन का पालन करके वह ऐसे साधुओं के प्रति साष्टांग प्रणाम करता है जो रहस्यात्मक गुणों से सुसज्जित हैं, जो सद्गुणों से भरपूर हैं, जो शारीरिक रूप से आकर्षक हैं, जो परिपक्व आयुवाले हैं, जो मानसिक असंयम से रहित हैं और जो अन्य मुनियों द्वारा प्रशंसित और सम्मानित हैं। वह उनके द्वारा दीक्षा ग्रहण करता है।
और परिणामस्वरूप सभी सांसारिक वस्तुओं की आसक्ति से दूर होकर इन्द्रियों और मन को अपने वश में करके वह वस्त्र-रहित हो जाता है और इस तरह उसका बाह्य स्वरूप जन्मानुसार बन जाता है, वह हिंसा
39. तत्त्वार्थसूत्र, 9/6 40. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 99 41. राजवार्तिक, 9/2, 7 42. सर्वार्थसिद्धि, 9/7 43. प्रवचनसार, 3/2, 3 अमृतचन्द्र की टीका सहित 44. प्रवचनसार, 3/2, 3 अमृतचन्द्र की टीका सहित 45. प्रवचनसार, 3/4
(12)
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org