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सकते हैं। फिर यदि वह इन्द्रिय सुखों से भी मुक्त हो जाए तो तप और ध्यान के पालने में भी कई कठिनाईयाँ आ सकती हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति को प्रमाद व आलस्य त्याग कर आध्यात्मिक अनुभूति के मार्ग पर चलने के लिए संकल्प करना चाहिए।
(ix) कर्मों के इहलोक और परलोक के दुःखों का प्रेरक (आस्रव-अनुप्रेक्षा)- शुभ और अशुभ कर्मों के आस्रव का होना सांसारिक जीवन का आधार है। आस्रव के परिणाम के बारे में विचारने से साधक शुभ और अशुभ से परे उठने के लिए उत्साहित होगा।
(x-xii) अब तक हमने उन प्रेरकों की व्याख्या की है जो हमें आध्यात्मिक जीवन की प्राप्ति के लिए प्रेरणा दे सकें। अब हम उन प्रेरकों का वर्णन करेंगे जो हमें सांसारिक आवागमन के दुःखों से छुड़ाने में समर्थ हो सकें। (x) कर्मों को रोकने की विधि का प्रेरक (संवरअनुप्रेक्षा), (xi) कर्मों को हटाने की विधि का प्रेरक (निर्जराअनुप्रेक्षा) और (xii) जिनदेव द्वारा धर्म का उपदेश देने का प्रेरक (धर्म-अनुप्रेक्षा)- इन पर चिन्तन करने से हम संसार रूपी जाल से निकल सकेंगे। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र संवर के कारण हैं 37 जब कि तप निर्जरा का कारण है। हम अनुप्रेक्षा का वर्णन कर चुके हैं। गुप्ति, समिति, परीषहजय और तप का वर्णन अगले पृष्ठों में करेंगे। धर्म के दस प्रकारों का वर्णन अगले अध्याय में
36. सर्वार्थसिद्धि, 9/7 .. 37. तत्त्वार्थसूत्र, 9/2, 3
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 96, 102 38. तत्त्वार्थसूत्र, 9/2, 3 - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 96, 102
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त ·
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