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________________ स्वयंसिद्ध है, अविनाशी है और इसका कोई कर्त्ता नहीं है। इसमें सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभाव को लिए हुए हैं, केवल जीव द्रव्यं अपने मूल स्वभाव से अनादिकाल से च्युत है। उसके स्वरूप को यथार्थ जानक व्यक्ति के लिए आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होना अपेक्षित है। इस अनुप्रेक्षा के चिन्तन से साधक लोक में अपनी स्थिति के महत्त्व को पहचानकर आत्मानुभव प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। अतः लोक पर चिंतन आत्मकल्याण के लिए प्रेरणादायी होता है। (viii) सम्यक् मार्ग को कठिनता से प्राप्त करने का प्रेरक ( बोधिदुर्लभ - अनुप्रेक्षा ) - तीन रत्नों की प्राप्ति जो दिव्य अन्त:शक्तियों को प्रकट करने में समर्थ है, उनकी उपलब्धि यथेष्ट योग्यता की कमी के कारण कठिन हैं। मनुष्य का मोक्ष प्राप्ति के लिए विशेषाधिकार तो होता है किन्तु मनुष्य योनि में पैदा होना एक संयोग है । फिर तप और ध्यान के लिए अवसर मिलना भी एक संयोग है । 34 कहा गया है कि अनवरत रूप से आवागमन करते हुए एक सचेतन प्राणी संयोग से मनुष्य रूप में पैदा होता है तो भी प्रतिष्ठित परिवार में जन्म लेना और अच्छे लोगो की संगति मिलना उतना ही विरल है जितना अंधे के हाथ बटेर लगना। सौभाग्य से व्यक्ति सभी सुविधाओं सहित मनुष्य रूप में पैदा हो सकता है किन्तु उसके लिए सम्यक् मार्गदर्शन का अभाव हो सकता है। यदि वह भी प्राप्त हो जाए तो इन्द्रिय सुख उसके समय को नष्ट कर 33. मूलाचार, 712 ज्ञानार्णव, 2/3, 4 34. मूलाचार, 755, 756 भगवती आराधना, 1867, 1869 35. सर्वार्थसिद्धि, 9/7 (10) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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