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अब चलें चौथे और वर्तमान चरण की ओर, जिसका कार्यकाल हैं सन् १९४७ से सन् २०४७ या अगली शताब्दी के करीब मध्याह्न तक।
... यदि स्वतंत्रता आन्दोलन के फलस्वरुप ईमानदारी से यहाँ का राज्य छोड़कर चले जाना होता तो - "लों संभाले । अपना पर, हम तो यह चले!" कहकर अंग्रेज यहाँ से चले जाते। किन्तु नहीं, रीमोट कन्ट्रोल' से उनका सदाकाल राज्य चलता
रहे एसी व्यवस्था, एसे कानून; एसा संविधान, एसी चुनावी व्यवस्था पर आधारित प्रजातंत्र की व्यवस्था, न्याय व्यवस्था दंगैरह . ... छोड़ गये । स्वतंत्र भारत के गर्वनर जनरल के रुप में लॉर्ड माउंटबेटन कुछ समय तक रहे ताकि तथाकथित 'ट्राँसीशन' के समय के दौरान कोई गड़बड़ न हो।
संविधान के तहत प्रथम आम चुनाव तो १९५१ में हुए, किन्तु १९४७ और १९५१ के बीच कई कानून पास कर लिये गये। उस काल के दौरान कानून और संविधान के क्षेत्र में जो धांधली हुई उसकी तह पाने के लिए किसी देशभक्त कानूनविद द्वारा गहरी खोजबीन की आवश्यकता है । इसके अलावा ब्रिटिश राज्यकाल के दौरान बने दर्जनों कानूनों को स्वतंत्र भारत ने ज्यों का त्यों adopt कर लिया । क्या था यह, नये स्वतंत्र राज्य का उदय या old wine in new bottle की तरह ब्रिटीश राज का सातत्य ?
. स्वराज्य देते समय भारतवासी और ब्रिटिश सत्ताधीश दोनों खुश थे । भोले भारतीय यह समझ कर कि उन्हें स्वयाने स्वंय का राज मिला और ब्रिटिश सत्ताधीश यह समझकर कि उन्होंने 'स्व' यने स्वंय का.राज भारत को दिया। पिछले .. वर्षों में यह दूसरी व्याख्या ही फलीभूत होती नजर आती है। ... .
वता मिलते ही 'ऑक्टोपस' प्राणी के अनेकों टेन्टेकल्स' की तरह 'यूनो' की अनेक बाहों ने भारत के हर क्षेत्र को अपनी चुंगाल में लेना शुरु किया।क्यी नेतागिरी को पश्चिमी राष्ट्रों की तड़क भड़क दिखा कर, भारत को भी एक नया अमरिका बनाने का उद्देश्य बनाकर, पश्चिमी विकास की ढाँचा अपनाने को समझाया गया और पश्चिम की शिक्षा प्रणाली (जो भारत में १०० वर्षों के अभ्यास से पुख्ता हो गई थी) से शिक्षित अफसरशाही ने उस ढाँचे को अपनाना और उसके अनुसार पंचवर्षीय योजनायें बनाना शुरु किया, उसकी उपलब्धि यह है कि आज भारत पर ७ लाख करोड़ रुपये का विदेशी कर्ज है । लूट के.दाम पर भी भारत से कच्चा माल ले जाने वाला ब्रिटन १९४७ में भारत का कर्जदार था । आज भारत मेक्सिको और ब्राजिलं के बाद दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश है। ..... १४९२ के षड़यंत्र की ओर फिर से चलें । दूसरे देशों से आये नागरिकों को अपने देश में नागरिकत्व देने के लिा अमेरिका ने 'ग्रीन कार्ड' की पद्धति बनाकर इस सिद्धांत को प्रस्थापित किया कि एक देश का नागरिक दूसरे देश का नागरिक भी बन सकता है। देश को गरीब बनाकर, विदेशी सहायता पर निर्भर बनाकर, अब उस सहायता - पूँजी निवेश के साथ “दोहरी नागरिकता' की शर्त धीरे से जोड़ी जा रही है। कुछ लाख या करोड़ रुपयों की पूंजी भारत में लगाने के एवज में एसी पूंजी लगाने वाले को भारत का नागरिकत्व दिया जायेगा - हमारे (या उनके ?!) प्रधानमंत्री एसा वादा पश्चिम के देशों को कर आये हैं। अब विदेशी पूंजी पति इस देश के नागरिक बन जायेगें और चूंकि संविधान के अनुसार हर नागरिक को प्रजातंत्र की प्रक्रिया में (खुनाव में) हिस्सा लेने का अधिकार है, ये.विदेशी (जो अब भारतीय नागरिक होंगे) हक से हमारी नगरपालिकाओं, विधानसभाओं,
और संसद के सदस्य बन सकेगें। चुनाव पद्धति जिस तरह से चलती है उसमें 'भनी पावर' व 'मसल पावर' ही मुख्य है और 'मनी पावर' की तो इन विदेशीयों के पास कोई कमी नहीं है।
सन् १९९६ के आम चुनाव शायद देश के आखरी आम चुनाव होंगे जिसमें सभी चुने हुए प्रतिनिधि भारतीय होंगे। उसके बाद के सन् २००१ के चुनाव में कुछेक गौर चहेरे विधानसभाओं में व लोकसभा में नजर आयेगें (बाकायदा भारतीय नागरिक
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