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में आने के बाद नागरिकता के अधिकार मिलेंगे (और इस उद्देश्य से “ अल्पसंख्यकों) के हकों की रक्षा हो) क्या यह विषमता नहीं है?
आंतरराष्ट्रीय आदर्शों - उद्देशों के अनुकूल कानून व न्याय व्यवस्था गठित हुई है। स्पर्धा में आंतरराष्ट्रीय तत्त्व ही आगे रहेंगे और न्याय उनके पक्ष में सरकता जायेगा यह स्वाभाविक है। इनामों के घोषणा तो सभी के लिये होती है, किन्तु जो शक्ति - संपन्न हो उसी को इनाम मिलता है।
शक्ति संपन्न व अशक्त के बीच स्पर्धा के आयोजन में ही अन्याय है। .
अब से आंतरराष्ट्रीय मापदंड से मानव जीवन यापन में श्वेत प्रजा है. आगे आयेगी यह स्वाभाविक है। स्थानीय प्रजायें स्थानीय तरीके से प्रगति अवश्य कर सकती है, किंतु जिन तरीकों से वे अनभिज्ञ हैं उन तरीकों से तो आगे नहीं ही आ सकती, यह भी उतना ही स्वाभाविक है। कोई अपवाद स्वरूप उदाहरण तो मात्र भ्रपणा ही पैदा करते हैं और आदर्श - भेदों वाली आंतरराष्ट्रीय संस्कृति के मृगजल के पीछे स्थानीय प्रजायें दौड़ाई जा रही है, जो अन्तत: स्पर्धा में हार जाती है।
देश, जमीनें, व्यवसाय, उद्योग, धर्म, जाति, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक संपत्ति जो अलग - अलग देश की और उसकी प्रजा की मान्य हों, उसके अनुरूप हो, उसी स्वरूप में उसे मदद की जाये, यही न्याय है। उसके स्थान पर इन सभी तत्त्वों को पूरी मानवजाति के लिये एक समान बनाकर, विविध देशों की प्रजाओं के अपने स्वतंत्र हक्कों से विहीन करना, उन्हें अनावश्यक स्पर्धा में जोतना और स्पर्धा के नियम भी आंतरराष्ट्रीय रखना - यह सब स्पष्ट रूप से श्वेत प्रजाओं को इस देश का निवासी बना देने के लिए है। संपत्ति, समृद्धि को नयी शिक्षा, कुशलता और प्रभाव के बल से उन्हीं के हाथों में चले जाने देना और इसी को समानता व न्याय, की संज्ञा देना कितना आश्चर्यजनक है? जब तक उनका अपना स्थान सदृढ नहीं हो जाता, तब तक उनको अल्पसंख्यकों के तौर पर स्वतंत्र हक देना, यह मूल रूप से ही किस तरह न्यायपूर्ण है?
हाँ, अल्पसंख्यकों के विशेषाधिकार फिलहाल कई अन्य अल्पसंख्यकों की श्रेणी को दिये जाते हैं। किंतु यह तो एक भ्रमणा मात्र है। उसका असली लाभ तो श्वेत वर्णीय अल्पसंख्यकों को अंतत: मिले यही व्यवस्था है, क्योंकि साधन संपत्ति पर नियंत्रण उनका है, इसका उपयोग करने की कुशलता उनकी है। इसलिये अंतिम लाभ वे ही ले जायेंगे यह स्वाभाविक है।
वनवासियों, पिछड़े वर्गों, आदिवासियों तथा अन्य विदेशी (अश्वेत) जातियों के अल्पसंख्यकों के हक्कों की रक्षा की जो व्यवस्था की गई है, वह भी दिखावटी ही है।
उनके हितों की दुहाई देकर इस देश की कर्तव्यनिष्ट और प्रगतिशील प्रजाओं और जातियों को उनके नाम पर दबाने की, उनके हाथ से संपत्ति, सत्ता वगैरह छीन लेने की ये व्यवस्थायें एक राजमार्ग समान बनती जायेंगी ऐसी विशेष संभावनायें हैं। राजाओं, धर्मगुरुओं, शेठ - साहकारों, जागीरदारों उच्च जाति के प्रजाजनों के समाने इसी देश के एक समूह को विरोधी या प्रतिपक्षी के रूप में तैनात कर दिया गया है। ___ अंतत: तो उनकी भी रक्षा नहीं होगी। जब गौरांग प्रजायें हिन्दुस्तान में बस जायेंगी और उनका संपूर्ण "स्वराज्य' हो जायेगा तब आदिवासियों और वनवासियों या दलितों की क्या दशा होगी यह भी विचारणीय है। हजारों वर्षों से वे यहाँ के मूल स्थानीय व सामाजिक तंत्र में अपना अस्तित्व टिका पाये हैं। परंतु इस नये संविधान के बाद तो शायद ही आने वाली कुछ सदियों तक वे टिक पायेंगे। आज की अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारों की व्यवस्था तो मात्र लालच है। .
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