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भारत की उच्च जातियाँ इतनी संस्कृतिबद्ध, शिक्षित तथा साधन संपन्न होते हुए भी इस नये संविधान से खतरे में पड़ गई है, तो फिर इन बिचारी पिछड़ी जातियों की तो विसात ही क्या है ?
सभी सत्ताओं तथा संपत्तियों और इनके मूल स्रोतों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेने के बाद विश्व के अन्य देशों की मूल प्रजाओं के जो हाल हवाल हुए हैं, वे इस देश की प्रजा के नहीं होंगे इसकी प्रतिबद्धता कौन दे पायेगा ? न्याय कहां रहेगा ? “धार्मिक स्वतंत्रता " वगैरह भी शब्दों की भूल भूलैय्या है। धर्म का अर्थ है आध्यात्मिक ध्येय। उनको छोड़कर सारा संविधान भौतिक ध्येयों पर ही रचा गया है।
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किसी एक धर्म का अनुसरण करके राज्यतंत्र नहीं रचा जा सकता, यह सही है। किंतु आध्यात्मिक ध्येयों का अनुसरण कर राज्यतंत्र या प्रजातंत्र रचा जाना चाहिये। उसके स्थान पर भौतक ध्येयों का अनुसरण करके राज्यतंत्र नहीं, अपितु प्रजातंत्र रचा गया है।
प्रजा का जाहिर जीवन न्याय, कानून वगैरह आध्यात्मिक ध्येयों का अनुसरण करता था इसलिये स्वाभाविक रूप से धर्म भी स्वतंत्र /निर्बंध रह सकता था और प्रजा का जाहिर जीवन ही न्याय और कानून व्यवस्था का मापदंड भी था। उसके बदले अब जब धर्म की स्वतंत्रता के उपर जाहिर नीति, कानून, आरोग्य और तथाकथित सुधरे हुए देशों के न्याय का अंकुश रखा गया है तो धर्म स्वतंत्र कैसे रह सकता है ? ईसाई धर्म प्रचार को परोक्ष रूप से पूरा वेग, मिले और यहाँ के मूल धर्म संकुचित होते जायें इसलिये जाहिर नीति, कानून, आरोग्य वगैरह मर्यादायें धार्मिक सहिष्णुता के नाम पर डाली गयी है।
इन सभी बंधनों के बावजूद समाधान का मार्ग अपनाकर जब तक और जहाँ तक अपने - अपने धर्म की मान्यताओं को वफादार रहने की लोगों की भावना हो तब तक व्यक्तिगत जीवन में लोग भले ही अपने धर्म का अनुसरण करें। इतनी सी सुविधा मात्र के अलावा धार्मिक स्वतंत्रता की बात में अन्य कोई वजूद नहीं है।
इतना ही नहीं, भारतीय धर्मों से भविष्य का जनसमाज किस तरह से विमुख हो इस बात को वेग मिले ऐसी . भी व्यवस्थायें इस संविधान में है।
भारत की प्रजा धर्म की स्वतंत्रता चाहने वाली है। इसलिये उसे संतुष्ट रखने के लिये, धर्म और जातीय वैमनस्य, मतभेद और संघर्षों के कृत्रिम भय को आगे करके उस पर अलग अलग अंकुश रखने के साथसाथ 'धार्मिक स्वतंत्रता' का शब्द छल भी किया जा रहा है। ब्रिटिश अधिकारियों ने भी ऐसा ही किया था। उसी लोगों को भ्रमणा में डालने मात्र के लिये "धार्मिक असली फल के बजाय फल का खिलौना दिया जाये
का अनुसरण दूसरे स्वरूप में किया गया है। भारत के स्वतंत्रता " शब्दों का उपयोग है। किसी बालक के हाथ में और वह उसे में डालकर चुप रहे, उस तरह से "स्वतंत्रता" शब्द का उपयोग किया गया है।
विश्व शांति के बारे में भी ऐसी ही व्यवस्था है। पूरे विश्व में श्वेत प्रजा का प्रभुत्व स्थायी हो जाये, वे ज्यादा से ज्यादा संख्या में सारे विश्व में और अश्वेत प्रजाओं के देशों में बस जायें, भविष्य में उन देशों में उनकी प्रजाओं . की वृद्धि होकर वे बहुमत में आ जायें तब उन सभी देशों में उनका "स्व" राज प्राप्त हो जायेगा। इस ध्येय की सिद्धि के लिये प्राथमिक चरणों में निष्णातों के रूप में, निर्वासितों के रूप में, पूंजीपतियों के रूप में, उद्योगपतियों के रूप में, आंतरराष्ट्रीय युद्धों के समय मार्गदर्शक वैज्ञानिकों, कुशल कार्यकर्ताओं तथा सलाहकारों के रूप में सभी जगह बसेंगे, उन देशों के नागरिक भी बन जायेंगे तथा कृषि व व्याणर के संचालन में मुख्य सलाहकार भी बनेंगे। इन सबके दौरान उनके भविष्य के हितों के लिये जो बहुत बड़े पैमाने पर उथल-पुथल होनी है, लड़ाईयाँ ही है और उनके द्वारा स्थानीय प्रजाओं में बड़े-बड़े परिवर्तन करने हैं, उनके हो जाने के बाद जिस विश्वशांति
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