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प्रकाशकीय टिप्पणी भारत के संविधान की समीक्षा की बात वर्तमान सरकार ने उठाई है। उसके लिए एक समिति भी बना दी है। समीक्षा के प्रस्ताव का उग्र विरोध भी हो रहा है। भारत की स्वतंत्रता के पहले ही जब संविधान का हिन्दी मुसद्दा प्रकाशित हुआ तो उसके अध्ययन के बाद स्व. पंडित प्रभुदास बेचरदास पारेख ने उस संविधान की अनिच्छनीयता के बारे में कई लेख लिखे। उनमें से एक लेख (मूल लेख गुजराती में है, जिसका यह हिन्दी अनुवाद है) नीचे दिया गया है। ध्यान में रहे कि यह लेख १९४७-४८ के काल में लिखा गया है और उसमें व्यक्त की गई आशंकायें आज सत्य बनकर सामने आ चुकी है। ऐसे में राष्ट्र को यह तय करना है कि संशोधित स्वरूप में भी मात्र भौतिक आदर्शों वाला यह संविधान चालु रहे या इसे पूर्णतया रद्द, करके उसके स्थान पर आध्यात्मिक ध्येय वाला, धर्म - प्रधान, धर्म-नियंत्रित, हमारे शास्त्रों; |पुराणों, वेदों, स्मतियों, श्रुतियों आधारित नये संविधान का गठन हो?
न्याय की पुकार हे देव! .
मैं किसके आगे शिकायत करूँ? मेरा किस किस कोर्ट में दाखिल करूँ? जगह-जगह पर न्याय की अदालतें बैठी है। राज्यों में उच्च न्यायालय है, दिल्ली में सर्वोच्च न्यायालय है। इंग्लैंड में प्रिवी काउंसिल है। जगत के मध्य चौक में न्याय का घंटा बजाने वाले युनाइटेड नेशन्स के डंके बज रहे हैं। .
क्या ये सभी न्याय की अदालतें हैं? या फिर मात्र कानून की अदालतें हैं? इस बारे में मुझे पूरी जानकारी नहीं है। कहलाती तो है ये न्याय की अदालतें और उसके संचालक भी कहलाते तो हैं न्यायाधीश। .
.परंतु वहाँ तक कैसे पहुंचा जाये ? बिना पैसे के वकील कौन बनेगा? इतने पैसे लाने कहाँ से? लोगों की नजरों में प्रिय होने का बल कहाँ से आये? अखबारों के तीक्ष्ण कटाक्ष सहन करने का बल भी कहाँ से लाया जाये? नष्ट हो चुके तथा गुप्त सबूत कहाँ से इकट्ठे किये जायें?
- हे देव! कहाँ जायें ? किसकी शरण लें? क्या करे? कुछ नहीं सूझता! - दिल्ली में बनाये गये भारत के नये संविधान का हिन्दी भाषा में प्रकाशित प्रारूप पढ़कर अंतरात्मा व्यथित हो उठी है। ____हिन्दु, मुसलमान और चीनी प्रजायें - ये जगत की तीन महाप्रजायें जो जगत की अश्वेत प्रजाओं की अगवा हैं। ये सभी खतरे में पड गयी हैं. उसका स्पष्ट प्रतिबिंब इस संविधान में दिखाई देता है। उनकी संस्कृति, उनके धर्म, उसके व्यवसाय, उनके अपने - अपने देशों की जमीनों के साथ संबंध और कुल मिलाकर एक विशिष्ट प्रजा के व्यक्तित्व के रूप में दीर्घकाल तक अस्तित्व में रहने की शक्ति भी खतरे में पड़ गयी हो ऐसा भास होता है।
समानता, न्याय, स्वतंत्रता इत्यादि जैसे शब्द मात्र भ्रम फैलाने वाले तथा उल्टी राह पर ले जाकर प्रजाओं के लिए खतरनाक साबित होने का भी भास होता है। __ तथाकथित समानताओं में अलग तरह की कई विषमतायें बुनी गयी हैं। अल्पसंख्यकों के विशेषाधिकार और उनकी अबाधितता समानता के तत्त्व का ह्रास करती है। जगत की श्वेत प्रजाओं के जिन लोगों को इस देश
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