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________________ राज्यसत्ता के अगणित विभाग, सरकारी विभाग, साल में सेंकडों/ हजारों की संख्या में नोटिफिकेशन्स निकालते हैं, नए कानून बनाते हैं, अध्यादेश लाते हैं। इन सारी बाबतों की खबर सामान्य प्रजाजन को होती नहीं है। फिर भी वह सारे उसके लिए बन्धनकर्ता ! पुनः, इन सबके लिए जो विस्तृत तन्त्र बनाया गया है उसे निभाने का बोझ भी सामान्य प्रजाजन पर ही! यह सारा भार वहन करके भी सामान्य प्रजाजन को सही न्याय मिलता है क्या? तो फिर क्या यह सब दिखावा मात्र? किस हेत से? राज्यसत्ता के लिए समस्त प्रजा मानो किसी विधवा का खेत है। इस खेत में वह उच्छंखल साँढ की तरह , सब तहस-नहस कर सकती है। उसकी नाक में नकेल डालकर उसे अंकुश में रखनेवाला न्याय का तत्त्व आज अंस्तित्वहीन है। ऐसी सत्ता, राक्षसी सत्ता का उद्भव कहाँ से हुआ? सत्ता अर्थात् क्या? किसने किसको सत्ता दी; या ली? सत्ता कौन भोगे? सत्ता का स्थान और अधिकार कानून तय करता है? या फिर सत्ता कानून को अपने अधिकार का अंग समझती है ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर माँगा जाना चाहिए। न्याय जो युगों युगों से मतभेदों व विवादों का निपटारा लाने वाला तत्त्व था. वह आज स्वयं मतभेदों - विवादों में घिर गया एक गैरसांवैधानिक रुप से निर्मित संविधान ने अपने अंतर्गत निर्मित कानूनों को संवैधानिकता बक्षी है! कैसा विरोधाभाप! उनं कानूनों का अनुसरण करने के लिए प्रजा बाध्य है! कैसी मजबूरी! इस स्थिति में से तार सके ऐसा एक ही तत्त्व है और वह है “विशुद्ध न्याय' का तत्त्व। कहाँ खोजें उसे? (14) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004203
Book TitleMananiya Lekho ka Sankalan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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