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________________ ६४ श्री उपासकदशांग सूत्र दुरूहित्ता पोसहसालाए पोसहिए दब्भसंथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजित्ता णं विहरइ। कठिन शब्दार्थ - पमजइ - प्रमार्जन किया, उच्चारपासवण भूमिं - उच्चारप्रस्रवण की भूमि का, पडिलेहेइ - प्रतिलेखन किया, दब्भसंथारंगं - दर्भ संस्तारक को, दुरुहइ - आरूढ हुआ। ___भावार्थ - तदनन्तर आनन्द श्रमणोपासक ने अपने ज्येष्ठ पुत्र और मित्र परिजन आदि की अनुमति लेकर घर से प्रस्थान किया और राजमार्ग से होते हुए कोल्लाक सन्निवेशस्थ पौषधशाला में आए, पौषधशाला का प्रमार्जन किया, बड़ी नीत-लघुनीत (शौच एवं लघुशंका) परठने योग्य स्थान की प्रतिलेखना की, दर्भ का संस्तारक (बिछौना) बिछाया और उस पर आरूढ (स्थित) होकर पौषधशाला में पौषध स्वीकार कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा उपदिष्ट धर्म प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर रहने लगे। विवेचन - उपरोक्त सूत्रों में आनन्द श्रावक का आध्यात्मिक विकास क्रम प्रतीत होता है। अणुव्रत का पालन करने वाले श्रावक का लक्ष्य सर्वविरति-महाव्रत धारण करने का ही होता है। वह गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों को पूर्ण कर उन गृहस्थ के संबंधों का त्याग कर श्रमणभूत जीवन जीने को कटिबद्ध होता है। उसी प्रकार आनंद श्रावक भी अपने ज्येष्ठ पुत्र को कौटुम्बिक उत्तरदायित्व सौंप कर स्वयं पौषधशाला में उपासक प्रतिमा की आराधना करने के लिए तैयार हो गये। ___एक गृहस्थ भी साधना में किस प्रकार क्रमिक विकास कर सकता है इसका सुंदर चित्रण आनन्द के इस कथानक में हुआ है। स्वेच्छा से गृहस्थ जीवन स्वीकार किया तो उसके कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी प्रवृत्तियों के बीच निवृत्ति की भावना, भोग में भी त्याग की प्रबलतम भावना श्रावकों के जीवन में होनी चाहिये ऐसे परिणाम ही श्रावक की भूमिका को दृढ़तम बनाते हैं और ऐसे श्रावक ही गृहस्थ जीवन में भी आध्यात्मिक विकास करके अपने अंतिम लक्ष्य को सिद्ध कर सकते हैं। ___ पौषधशाला - उस जमाने में श्रावक गृहस्थ जीवन की आवश्यकतानुसार साधन-सामग्री की व्यवस्था करता, उसके साथ ही अपनी साधना के लिए अनुकूल स्थान की भी व्यवस्था करता था जिसे जैन पारिभाषिक शब्द में 'पौषधशाला' कहा जाता है। पौषधशाला में शय्या संस्तारक, परठने की भूमि आदि की भी व्यवस्था रहती थी। ___ वर्तमान के गृहस्थ साधकों के लिए आनन्द का जीवन दिशा सूचक है। अतः गृहस्थ को अपने घर में केवल भोग विलास योग्य वातावरण ही नहीं रखते हुए साधना योग्य स्वतंत्र स्थान रखने का कर्तव्य भी समझना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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